शनिवार, 29 अगस्त 2020

शाप और वरदान

सुनसान के सहचर ८
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शाप और वरदानों के आश्चर्यजनक परिणामों की चर्चा से हमारे प्राचीन इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं। श्रवण कुमार को तीर मारने के दण्ड स्वरूप उसके पिता ने राजा दशरथ को शाप दिया था कि वह भी पुत्र शोक में इसी प्रकार विलख-विलख कर मरेगा । तपस्वी के मुख से निकला हुआ वचन असत्य नहीं हो सकता था, दशरथ को उसी प्रकार मरना पड़ा था । गौतम ऋषि के शाप से इन्द्र और चन्द्रमा जैसे देवताओंकी दुर्गति हुई । राजा सगर के दस हजार पुत्रों को कपिल के क्रोध करने के फलस्वरूप जलकर भस्म होना पड़ा । प्रसन्न होने पर देवताओं की भाँति तपस्वी ऋषि भी वरदान प्रदान करते थे और दुःख दारिद्र से पीड़ित अनेकों व्यक्ति सुख-शान्ति के अवसर प्राप्त करते थे ।

पुरुष ही नहीं, तप साधना के क्षेत्र में भारत की महिलाएँ भी पीछे न थीं। पार्वती ने प्रचंण्ड तप करके मदन-दहन करने वाले समाधिस्थ शंकर को विवाह करने के लिए विवश किया। अनुसूया ने अपनी आत्म शक्ति से ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नहे-नहे बालकों के रूप में परिणत कर दिया । सुकन्या ने अपने वृद्ध पति को युवा बनाया। सावित्री ने यम से संघर्ष करके अपने मृतक पति के प्राण लौटाये । कुन्ती ने सूर्य तप करके कुमारी अवस्था में सूर्य के समान तेजस्वी कर्ण को जन्म दिया। क्रुद्ध गान्धारी ने कृष्ण को शाप दिया कि जिस प्रकार मेरे कुल का नाश किया है, वैसे ही तेरा कुल इसी प्रकार परस्पर संघर्ष में नष्ट होगा । उसके वचन मिथ्या नहीं गये । सारे यादव आपस में ही लड़कर नष्ट हो गए। दमयन्ती के शाप से व्याध को जीवित ही जल जाना पड़ा । इड़ा ने अपने पिता मनु का यज्ञ सम्पन्न कराया और उनके अभीष्ट प्रयोजन को पूरा करने में सहायता की । इन आश्चर्यजनक कार्यों के पीछे उनकी तप शक्ति की महिमा प्रत्यक्ष है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

उत्तम सन्तान

सुनसान के सहचर ७
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उत्तम सन्तान प्राप्त करने के अभिलाषी भी तपस्वियों के अनुग्रह से सौभाग्यान्वित हुए हैं । श्रृंगी ऋषि द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तीन विवाह कर लेने पर भी संतान न होने पर राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए । राजा दिलीप ने चिरकाल तक अपनी रानी समेत वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चराकर जो अनुग्रह प्राप्त किया, उसके फलस्वरूप ही डूबता वंश चला, पुत्र प्राप्त हुआ । पाण्डु जब सन्तानोत्पादन में असमर्थ रहे तो व्यास जी के अनुग्रह से प्रतापी पाँच पाण्डव उत्पन्न हुए। श्री जवाहर लाल नेहरू के बारे में कहा गया है कि उनके पिता श्री मोतीलाल नेहरू जब चिरकाल तक सन्तान से वंचित रहे तो इनकी चिन्ता दूर करने के लिए हिमालय निवासी एक तपस्वी ने अपना शरीर त्यागा और उनका मनोरथ पूर्ण किया । अनेकों ऋषि कुमार अपने माता-पिता का प्रचण्ड अध्यात्म बल जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते थे और वे बालकपन में ही वह कार्य कर लेते थे, जो बड़ों के लिए कठिन होते हैं। लोमश ऋषि के पुत्र शृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित द्वारा अपने पिता के गले में सर्प डाला जाता देखकर क्रोध से शाप दिया कि सात दिन में कुकृत्य करने वाले को सर्प काट लेगा । परीक्षित की सुरक्षा के भारी प्रयत्न किये जाने पर भी सर्प से काटे जाने का ऋषि कुमार का शाप सत्य होकर ही

रहा।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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वज्र

सुनसान के सहचर ५
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शुकदेव जी जन्म से साधना रत हो गए। उन्होंने मानव जीवन का एकमात्र सदुपयोग इसी में समझा कि इसका उपयोग आध्यात्मिक प्रयोजनों में करके नर-तन जैसे सुरदुर्लभ सौभाग्य का सदुपयोग किया जाये । वे चकाचौंध पैदा करने वाले वासना एवं तृष्णा जन्य प्रलोभनों को दूर से नमस्कार करके ब्रह्मज्ञान की, ब्रह्मतत्त्व की उपलब्धि में संलग्न हो गये।

तपस्वी ध्रुव ने खोया कुछ नहीं, यदि वह साधारण राजकुमार की तरह मौज-शौक का जीवन यापन करता, तो समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र बिन्दु ध्रुवतारा बनने और अपनी कीर्ति को अमर बनाने का लाभ उसे प्राप्त न हो सका होता। उस जीवन में भी उसे जितना विशाल राजपाट मिला, उतना किसी की अधिक से अधिक कृपा प्राप्त होने पर भी उसे उपलब्ध न हुआ होता । पृथ्वी पर बिखरे हुए अन्न कणों को बीनकर अपना निर्वाह करने वाले कणाद ऋषि,वट वृक्ष के दूध पर गुजारा करने वाले वाल्मीकि ऋषि भौतिक विलासिता से वंचित रहे, पर इसके बदले में जो कुछ पाया, वह बड़ी से बड़ी सम्पदा से कम न था ।

भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने अपने काल में लोक की दुर्गति को मिटाने के लिए तपस्या को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग किया। व्यापक हिंसा और असुरता के वातावरण को दया अहिंसा के रूप में परिवर्तित कर दिया। दुष्टता को हटाने के लिए यों अस्त्र-शस्त्रों का-दण्ड-दमन का मार्ग सरल समझा जाता है; पर वह भी सेना एवं आयुधों की सहायता से उतना नहीं हो सकता, जितना तपोबल से। अत्याचारी शासकों का पृथ्वी से उन्मूलन करने के लिए परशुराम जी का फरसा अभूतपूर्व अस्त्र सिद्ध हुआ । उसी से उन्होंने सेना के बड़े-बड़े सामन्तों से सुसज्जित राजाओं को परास्त कर २१ बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया । अगस्त का कोप बेचारा समुद्र क्या सहन करता? उन्होंने तीन चुल्लुओं में सारे समुद्र को उदरस्थ कर लिया । देवता जब किसी प्रकार असुरों को परास्त न कर सके, लगातार हारते ही गये तो तपस्वी दधीचि की तेजस्वी हड्डियों का वज्र प्राप्त कर इन्द्र ने देवताओं की नाव को पार लगाया ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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तितीक्षा

सुनसान के सहचर ६
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प्राचीनकाल में विद्या का अधिकारी वही माना जाता था, जिसमें तितीक्षा एवं कष्ट सहिष्णुता की क्षमता होती थी, ऐसे ही लोगों के हाथ में पहुँचकर विद्या उसका व समस्त संसार का कल्याण करती थी । आज विलासी और लोभी प्रवृत्ति के लोगों को ही विद्या सुलभ हो गई । फलस्वरूप वे उसका दुरुपयोग भी खूब कर रहे हैं । हम देखते हैं कि अशिक्षितों की, अपेक्षा सुशिक्षित ही मानवता से अधिक दूर हैं और वे विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करके संसार की सुख-शान्ति के लिए अभिशाप बने हुए हैं। प्राचीनकाल में प्रत्येक अभिभावक अपने बालकों को तपस्वी मनोवृत्ति का बनाने के लिए उन्हें गुरुकुल में भेजता था और गुरुकुल के संचालक बहुत-बहुत समय तक बालकों में कष्ट सहिष्णुता जागृत करते थे और जो इस प्रारम्भिक परीक्षा में सफल होते थे, उन्हें ही परीक्षाधिकारी मानकर विद्या-दान करते थे । उद्दालक, आरुणि आदि अगणित छात्रों को कठोर परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था । इसका

वृत्तान्त सभी को मालूम है । ब्रह्मचर्य के तप का प्रधान अंग माना गया है । बजरंगी हनुमान, बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं । शंकराचार्य, दयानन्द प्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य व्रत के आधार पर ही संसार की महान् सेवा कर सके । प्राचीनकाल में ऐसे अनेकों गृहस्थ होते थे, जो विवाह होने पर भी अपनी पत्नी के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते थे ।

आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तपबल से न केवल अपना आत्म-कल्याण करते थे वरन् अपनी थोड़ी-सी शक्ति शिष्यों को देकर उनको भी महान् पुरुष बना देते थे । विश्वामित्र के आश्रम में रहकर रामचन्द्रजी का, संदीपन ऋषि के गुरुकुल में पढ़कर कृष्णचन्द्र जी का ऐसा निर्माण हुआ कि भगवान ही कहलाये । समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर एक मामूली सा मराठा बालक छत्रपति शिवाजी बना । रामकृष्ण परमहंस से शक्ति कण पाकर नास्तिक नरेन्द्र संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानंद कहलाया । प्राण रक्षा के लिए मारे मारे फिरते हुए इंद्र को महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियां देकर उसे निर्भय बनाया । नारद का जरा सा उपदेश पाकर डाकू बाल्मीकि महर्षि बन गया ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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तप साधना

सुनसान के सहचर ४
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नई सृष्टि रच डालने वाले विश्वामित्र की-रघुवंशी राजाओं की अनेक पीढ़ियों तक मार्गदर्शन करने वाले वशिष्ठ की क्षमता तथा साधना इसी में ही अन्तर्निहित थी । एक बार राजा विश्वामित्र वन में अपनी सेना को लेकर पहुँचे तो वशिष्ठ जी ने कुछ सामान न होने पर भी सारी सेना का समुचित आतिथ्य कर दिखाया तो विश्वामित्र दंग रह गये। किसी प्रसंग को लेकर जब निहत्थे वशिष्ठ और विशाल सेना सम्पन्न विश्वामित्र में युद्ध ठन गया, तो तपस्वी वशिष्ठ के सामने राजा विश्वामित्र को परास्त ही होना पड़ा। उन्होंने “धिक् बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्म तेजो बलम्" की घोषणा करते हुए राजपाट छोड़ दिया और सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति की तपश्चर्या के लिए शेष जीवन समर्पित कर दिया।

अपने नरकगामी पूर्व पुरुषों का उद्धार तथा प्यासी पृथ्वी को जलपूर्ण करके जन-समाज का कल्याण करने के लिए गंगावतरण की आवश्यकता थी। इस महान् उद्देश्य की पूर्ति लौकिक पुरुषार्थ से नहीं वरन् तप शक्ति से ही सम्भव थी। भगीरथ कठोर तप करने के लिए वन को गए और अपनी साधना से प्रभावित कर गंगाजी को भूलोक में लाने एवं शिवजी को अपनी जटाओं में धारण करने के लिए तैयार किया, यह कार्य साधारण प्रक्रिया से सम्पन्न न होता, तप ने ही उन्हें सम्भव बनाया।

च्यवन ऋषि इतना कठोर दीर्घकालीन तप कर रहे थे कि उनके सारे

शरीर पर दीमक ने अपना घर बना लिया था और उनका शरीर एक मिट्टी का टीला जैसा बन गया था । राजकुमारी सुकन्या को छेदों में दो चमकदार चीजें दीखी और उनमें काँटे चुभो दिए । यह चमकदार चीजें और कुछ नहीं च्यवन ऋषि की आँखें थी । च्यवन ऋषि को इतनी कठोर तपस्या इसलिए करनी पड़ी कि वे अपनी अन्तरात्मा में सन्निहित शक्ति केन्द्रो को जागृत करके परमात्मा के अक्षय शक्ति भण्डार में भागीदारी मिलने की अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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तपश्चर्या

सुनसान के सहचर ३
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संसार में जब कभी कोई महान् कार्य सम्पन्न हुए हैं, तो उनके पीछे तपश्चर्या की शक्ति अवश्य रही है । हमारा देश देवताओं और नर-रत्नों का देश रहा है । यह भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है। ज्ञान, पराक्रम और सम्पदा की दृष्टि से महाराष्ट्र सदा से विश्व का मुकुटमणि रहा है । उन्नति के इस उच्च शिखर पर पहुँचने का कारण यहाँ के निवासियों की प्रचण्ड तपनिष्ठा ही रही है । आलसी और विलासी, स्वार्थी और लोभी लोगों को यहाँ सदा घृणित एवं निकृष्ट माना जाता रहा है। तप शक्ति की महत्ता को यहाँ के निवासियों ने पहचाना, तत्त्वत: कार्य किया और उसके उपार्जन में पूरी तत्परता दिखाई, तभी यह सम्भव हो सका कि भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं सम्पदाओं के स्वामी होने का इतना ऊँचा गौरव प्राप्त हुआ ।

पिछले इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत का बहुमुखी विकास तपश्चर्या पर आधारित एवं अवलम्बित होता है । सृष्टि के उत्पन्न कीर्ति प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के पूर्व, विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पुष्प पर अवस्थित होकर, सौ वर्षों तक गायत्री उपासना के आधार पर तप किया, तभी उन्हें सृष्टि निर्माण एवं ज्ञान-विज्ञान के उत्पादन की शक्ति उपलब्ध हुई । मानव धर्म के आविष्कर्ता भगवान मनु ने अपनी रानी शतरूपा के साथ प्रचण्ड तप करने के पश्चात् ही अपना महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वपूर्ण किया था, भगवान् शंकर स्वयं तप रूप हैं । उनका कार्यक्रम सदा से तप साधना ही रहा। शेषजी तप के बल पर ही इस पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किये हैं । सप्त ऋषियों ने इसी मार्ग पर दीर्घकाल तक चलते रहकर वह सिद्धि प्राप्त की, जिससे सदा उनका नाम अजर-अमर रहेगा । देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य अपने-अपने शिष्यों के कल्याण, मार्गदर्शन और सफलता की साधना अपनी तप शक्ति के आधार पर ही करते रहे हैं ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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तप

सुनसान के सहचर - २
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प्रकृति तपती है इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल रही है। जीव तपता है, उसी से उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ पराक्रम, साहस, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान,प्रकृति रत्नाकर श्रृंखला प्रस्फुटित होती है ।माता अपने अण्ड एवं भ्रूण को अपनी उदरस्थ ऊष्मा से पकाकर शिशु का प्रसव करती है । जिन जीवों ने मूर्छित स्थिति से ऊँचे उठने की, खाने-सोने से कुछ अधिक करने की आकांक्षा की है, उन्हें तप करना पड़ा है। संसार में अनेकों पुरुषार्थी-पराक्रमी इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष जो हुए हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में अपने-अपने ढंग का तप करना पड़ा है । कृषक, विद्यार्थी, श्रमिक वैज्ञानिक, शासक, विद्वान्, उद्योग, कारीगर आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य-भूमिकाओं का सम्पादन करने वाले व्यक्ति वे ही बन सके हैं, जिन्होंने कठोर श्रम, अध्यवसाय एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है। यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुँच पाते, जो उन्होंने कष्ट-सहिष्णु एवं पुरुषार्थ बनकर उपलब्ध किया है । पुरुषार्थों में आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूल्य और महत्व अधिक है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सामान्य सम्पत्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति सम्पदा की महत्ता अधिक है । धन, बुद्धि, बल आदि के आधार पर अनेक व्यक्ति, उन्नतिशील, सुखी एवं सम्मानित बनते हैं; पर उन सबसे अनेक गुना महत्त्व वे लोग प्राप्त करते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक बल का संग्रह किया है। पीतल और सोने में, काँच और रत्न में जो अन्तर है, वही अन्तर सांसारिक सम्पत्ति एवं आध्यात्मिक सम्पदा के बीच में भी है। इस संसार में धनी, सेठ, अमीर, उमराव, गुणी, विद्वान् कलावन्त बहुत हैं, पर उनकी तुलना उन महान् आत्माओं के साथ नहीं हो सकती, जिनने

अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा अपना ही नहीं संसार का हित साधन

किया। प्राचीनकाल में भी सभी समझदार लोग अपने बच्चों को

कष्ट-सहिष्णु अध्यवसायी, तितीक्षाशील एवं तपसी बनाने के लिए छोटी

आयु में ही गुरुकुलों में भर्ती करते थे; ताकि आगे चलकर वे कठोर जीवनयापन करने के अभ्यस्त होकर महापुरुषों की महानता के अधिकारी बन सकें ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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गुरुवार, 27 अगस्त 2020

हमारा अज्ञातवास

सुनसान के सहचर

हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य

तप की शक्ति अपार है । जो कुछ अधिक से अधिक शक्ति सम्पन्न तत्त्व इस विश्व में है, उसका मूल “ताप” में ही सन्निहित है । सूर्य तपता है, इसलिए ही वह समस्त विश्व को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भण्डार का अधिपति है । ग्रीष्म की ऊष्मा से जब वायु मण्डल भली प्रकार तप लेता है तो मंगलमयी वर्षा होती है । सोना तपता है तो खरा, तेजस्वी और मूल्यवान बनाता है । जितनी भी धातुएँ हैं, वे सभी खान से निकलते समय दूषित, मिश्रित व दुर्बल होती हैं, पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया, पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान् बन जाती हैं । कच्ची मिट्टी के बने हुए कमजोर खिलौने और बर्तन जरा से आयात से टूट सकते हैं । तपाये और पकाये जाने पर मजबूत एवं रक्त वर्ण हो जाते हैं, कच्ची ईंट भट्टे में पकने पर पत्थर जैसी कड़ी हो जाती है । मामूली से कच्चे कंकड़ पकने पर चूना बनते हैं और उनके द्वारा बने हुए विशाल प्रसाद दीर्घकाल तक बने खड़े रहते हैं

मामूली-सा अभ्रक जब सौ बार अग्नि में तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बनता है, अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान् भस्म रसायन बन जाती है और उनसे अशक्त एवं कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त रोगी पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं । साधारण अन्न और दाल-सांग कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट । वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचिपूर्ण व्यंजनों का रूप धारण करते हैं । धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले-कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं । पेट की जठराग्नि द्वारा पकाया हुआ अन्न भी रक्त, अस्थि का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है । यदि वह अग्नि संस्कार की-तप की प्रक्रिया बन्द हो जाय तो निश्चित रूप से विकास का सारा काम बन्द हो जायेगा।

प्रकृति तपती है, इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल



बुधवार, 26 अगस्त 2020

सुनसान के सहचर

विषय सूची

१-हमारा अज्ञातवास और तप साधना का उद्देश्य

२-हिमालय में प्रवेश

३-प्रकृति का रुद्राभिषेक

४-सुनसान की झोपड़ी

५-सुनसान के सहचर

६-विश्व समाज की सदस्यता

७-हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
 ८-हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

***
पुस्तक परिचय

इसे एक सौभाग्य, संयोग ही कहना चाहिए कि जीवन को आरम्भ से अन्त तक एक समर्थ सिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया । उस मार्गदर्शक ने जो भी आदेश दिए वे ऐसे थे जिनमें इस अकिंचन जीवन की सफलता के साथ-साथ लोक-मंगल का महान् प्रयोजन भी जुड़ा है । १५ वर्ष की आयु से उनकी अप्रत्याशित अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई । इधर से भी यह प्रयल हुए कि महान् गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाए। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने आत्म समर्पण ही हो गया । कठपुतली की तरह अपनी समस्त शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएँ उन्हीं के चरणों पर समर्पित हो गयीं। जो आदेश हुआ उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य कर कार्यान्वित किया गया । अपना यही क्रम अब तक चलता रहा है । अपने अद्यावधि क्रिया-कलापों को एक

कठपुतली की उछल-कूद कहा जाय तो उचित ही विशेषण होगा।

पन्द्रह वर्ष समाप्त होने और सोलहवें में प्रवेश करते समय यह दिव्य साक्षात्कार मिलन हुआ । उसे ही विलय कहा जा सकता है । आरम्भ में २४ वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ इन दो पदार्थों के आधार पर अखण्ड दीपक के समीप २४ गायत्री महापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई । सो ठीक प्रकार सम्पन्न हुए। उसके बाद दस वर्ष तक धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिए प्रचार,संगठन,लेखन,भाषण एवं रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। ४ हजार शाखाओं वाला गायत्री परिवार बनकर खड़ा हो गया। उन वर्षों में एक ऐसा संघ बनकर खड़ा हो गया, जिसे नवनिर्माण के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके । चौबीस वर्ष की पुरश्चरण साधना का व्यय दस वर्ष में हो गया। अधिक ऊँची जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी । सो इसके लिए फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिए जहाँ अभी भी आत्म चेतना का शक्ति प्रवाह प्रवाहित होता है । अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही हो सकता था।
सन् ५८ में एक वर्ष के लिए हिमालय तपश्चर्या के लिए प्रयाण हुआ। गंगोत्री में भगीरथ के तप-स्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तप-स्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हुई । भगीरथ की तपस्या गंगा-अवतरण को और परशुराम की तपस्या दिग्विजय में परशु प्रस्तुत कर सकी थी । नव निर्माण के महान् प्रयोजन में अपनी तपस्या के कुछ श्रद्धा बिन्दु काम आ सके तो उसे भी साधना की सफलता ही कहा जा सकेगा।

उस एक वर्षीय तप साधना के लिए गंगोत्री जाते समय मार्ग में अनेक विचार उठते रहे । जहाँ-जहाँ रहना हुआ, वहाँ-वहाँ भी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं । लिखने का व्यसन रहने से उन प्रिय अनुभूतियों को लिखा भी जाता रहा। उनमें से कुछ ऐसी थीं,जिनका रसास्वादन दूसरे करें तो लाभ उठाएँ । उन्हें अखण्ड-ज्योति में छपने भेज दिया गया,छप भी गयीं । अनेक ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया सो नहीं छपाई गयीं । 

उन दिनों “साधक की डायरी के पृष्ठ” “सुनसान के सहचर” आदि शीर्षकों से जो लेख “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका में छपे,वे लोगों को बहुत रुचे । बात पुरानी हो गई पर अभी लोग उन्हें पढ़ने के लिए उत्सुक थे। सो इन लेखों को पुस्तकाकार में प्रकाशित कर देना उचित समझा गया। अस्तु यह पुस्तक प्रस्तुत है । घटनाक्रम अवश्य पुराना हो गया, पर उन दिनों जो विचार अनुभूतियाँ उठतीं,वे शाश्वत हैं । उनकी उपयोगिता में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ अन्तर नहीं आया है आशा की जानी चाहिए भावनाशील अन्तःकरणों को वे अनुभूतियाँ अभी भी हमारी ही तरह स्पंदित कर सकेंगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।
एक विशेष लेख इसी संकलन में और है वह है-" हिमालय के हृदय का। विवेचन-विश्लेषण ।" बद्रीनारायण से लेकर गंगोत्री के बीच का लगभग ४०० मील परिधि का वह स्थान है, जो प्रायः सभी देवताओं और ऋषियों का तप केन्द्र रहा है । इसे ही धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है । स्वर्ग कथाओं के जो घटनाक्रम एवं व्यक्ति चरित्र जुड़े हैं, उनकी यदि इतिहास-भूगोल से संगति मिलाई जाये तो वे धरती पर ही सिद्ध होते हैं और उस बात में बहुत वजन मालूम पड़ता है, जिसमें कि इन्द्र शासन एवं आर्ष-सभ्यता की संस्कृति का उद्गम स्थान हिमालय का उपरोक्त स्थान बताया गया है । अब वहाँ बर्फ बहुत पड़ने लगी है । ऋतु परिस्थितियों की श्रृंखला में अब वह हिमालय का हृदय असली उत्तराखण्ड इस योग्य नहीं रहा कि वहाँ आज के दुर्बल शरीरों वाला व्यक्ति निवास-स्थान बना सके । इसलिए आधुनिक उत्तराखण्ड नीचे चला गया और हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण, गंगोत्री, गोमुख तक ही उसकी परिधि सीमित हो गयी है ।

"हिमालय के हृदय” क्षेत्र में जहाँ प्राचीन स्वर्ग की विशेषता विद्यमान है, वहाँ तपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आध्यात्मिक क्षेत्र भी विद्यमान है । हमारे मार्गदर्शक वहाँ रहकर प्राचीनतम ऋषियों की इस तप संस्कारित भूमि से अनुपम शक्ति प्राप्त करते हैं । कुछ समय के लिए हमें भी उस स्थान पर रहने का सौभाग्य मिला और वे दिव्य स्थान अपने भी देखने में आये । सो इनका जितना दर्शन हो सका,उसका वर्णन अखण्ड ज्योति में प्रस्तुत किया गया था। वह लेख भी अपने ढंग का अनोखा है । उससे संसार में एक ऐसे स्थान का पता चलता है, जिसे आत्म-शक्ति का ध्रुव कहा जा सकता है । धरती के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुवों में विशेष शक्तियाँ हैं । अध्यात्म शक्ति का एक ध्रुव हमारी समझ में आया हैं। जिसमें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भरी पड़ी हैं । सूक्ष्म शक्तियों की दृष्टि से भी और शरीरधारी सिद्ध पुरुषों की दृष्टि से भी ।
इस दिव्य केन्द्र की ओर लोगों का ध्यान बना रहे, इस दृष्टि से उसका परिचय से तो रहना ही चाहिए, इस दृष्टि उस जानकारी को मूल्यवान ही कहा जा सकता है । ब्रह्मवर्चस,शांतिकुंज,गायत्री नगर का निर्माण उत्तराखण्ड के द्वार में करने का उद्देश्य यही रहा है । जो लोग यहाँ आते हैं, उनने असीम शान्ति प्राप्ति की है । भविष्य में उसका महत्त्व असाधारण होने जा रहा है। उन सम्भावनाओं को व्यक्त तो नहीं किया जा रहा है । अगले दिनों उनसे लोग चमत्कृत हुए बिना न रहेंगे ।

श्रीराम शर्मा आचार्य