शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

सुनसान के सहचर २०

सुनसान के सहचर २०
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लदी हुई बकरी

छोटा-सा जानवर बकरी इस पर्वतीय प्रदेश की तरणतारिणी कामधेनु कही जा सकती है। वह दूध देती है, ऊन देती है, बच्चे देती है, साथ ही वजन भी ढोती है। आज बड़े-बड़े बालों वाली बकरियों का एक झुण्ड रास्ते में मिला, लगभग सौ- सवा सौ होंगी, सभी लदी हुई थीं। गुड़-चावल, आटा लादकर वे गंगोत्री की ओर ले जा रही थीं हर एक पर उसके कद और बल के अनुसार दस-पन्द्रह सेर वजन लदा हुआ था। माल असबाव की ढुलाई के लिए खच्चरों के अतिरिक्त इधर बकरियाँ ही साधन हैं। पहाड़ों की छोटी-छोटी पगडंडियों पर दूसरे जानवर या वाहन काम तो नहीं कर सकते।

सोचता हूँ कि जीवन की समस्याएँ हल करने के लिए बड़े-बड़े विशाल साधनों पर जोर देने की कोई इतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है, जितनी समझी जाती है, जब कि व्यक्ति साधारण उपकरणों से अपने निर्वाह के साधन जुटाकर शांतिपूर्वक रह सकता है। सीमित औद्योगीकरण की बात दूसरी है, पर यदि वे बढ़ते ही रहे तो बकरियों तथा उनके पालने वाले जैसे लाखों की रोजी-रोटी छीनकर चन्द उद्योगपतियों की कोठियों में जमा हो सकती है। संसार में जो युद्ध की घटाएँ आज उमड़ रही हैं, उसके मूल में भी इस उद्योग व्यवस्था के लिए मार्केट जुटाने, उपनिवेश बनाने की लालसा ही काम कर रही है ।

बकरियों की पंक्ति देखकर मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हो रहा है कि व्यक्ति यदि छोटी सीमा में रहकर जीवन विकास की व्यवस्था जुटाए तो इसी प्रकार शान्तिपूर्वक रह सकता है, जिस प्रकार यह बकरियों वाले भले और भोले पहाड़ी रहते हैं। प्राचीनकाल में धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना ही भारतीय समाज का आदर्श था । ऋषि- मुनि एक बहुत छोटी इकाई के रूप में आश्रमों और कुटियों मे जीवन-यापन करते थे। ग्राम उससे कुछ बड़ी इकाई थे, सभी अपनी आवश्यकताएँ अपने क्षेत्र में, अपने समाज से पूरी करते थे और हिल-मिलकर सुखी जीवन बिताते थे, न इसमें भ्रष्टाचार की गुंजायश थी न बदमाशी की। आज औद्योगीकरण की घुड़दौड़ में छोटे गाँव उजड़ रहे हैं, बड़े शहर बस रहे हैं, गरीब पिस रहे हैं, अमीर पनप रहे हैं। विकराल राक्षस की तरह धड़धड़ाती हुई मशीनें मनुष्य के स्वास्थ्य को, स्नेह सम्बन्धों को, सदाचार को भी पैसे डाल रही हैं । इस यंत्रवाद, उद्योगवाद, पूंजीवाद की नींव पर जो कुछ खड़ा किया जा रहा है, उसका नाम विकास रखा गया है, पर

यह अन्तत: विनाशकारी ही सिद्ध होगा।

विचार असम्बद्ध होते जा रहे हैं, छोटी बात मस्तिष्क में बड़ा रूप धारण कर रही है, इसलिए इन पंक्तियों को यहीं समाप्त करना उचित है, फिर भी बकरियाँ भुलाये नहीं भूलतीं । वे हमारे प्राचीन भारतीय समाज रचना की एक स्मृति को ताजा करती हैं, इस सभ्यता के युग में उन बेचारियों की उपयोगिता कौन बनेगा ? पिछड़े युग की निशानी कहकर उनका उपहास ही होगा, पर सत्य-सत्य ही रहेगा, मानव जाति जब कभी शान्ति और संतोष के लक्ष्य पर पहुँचेगी, तब धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण अवश्य हो रहा होगा और लोग इसी तरह श्रम और सन्तोष से परिपूर्ण जीवन बिता रहे होंगे। जैसे बकरी वाले अपनी मैं-मैं करती हुई बकरियों के साथ जीवन बिताते हैं।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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सुनसान के सहचर १९

सुनसान के सहचर १९
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रोते पहाड़

आज रास्ते में "रोते पहाड़" मिले । उनके पत्थर नरम थे, ऊपर किसी सोते का पानी रुका पड़ा था । पानी को निकलने के लिए जगह न मिली । नरम पत्थर उसे चूसने लगे, वह चूसा हुआ पानी जाता कहाँ ? नीचे की ओर वह पहाड़ को गीला किये हुए था। जहाँ जगह थी वहाँ वह गीलापन धीरे-धीरे इकट्ठा होकर बूंदों के रूप में टपक रहा था। इन टपकती बूंदों को लोग अपनी भावना के अनुसार आँसू की बूँदें कहते हैं। जहाँ-तहाँ से मिट्टी उड़कर इस गीलेपन से चिपक जाती है, उसमें हरियाली के जीवाणु भी आ जाते हैं। इस चिपकी हुई मिट्टी पर एक हरी मुलायम काई जैसी उग आती है । काई को पहाड़ में "कीचड़" कहते है। जब वह रोता है तो आँखें दुःखती हैं । रोते हुए पहाड़ आज हम लोगों ने देखे, उनके आँसू भी कहीं से पोंछे । कीचड़ों को टटोल कर देखा । वह इतना ही कर सकते थे । पहाड़ तू क्यों रोता है? इसे कौन पूछता और क्यों वह इसका उत्तर देता ?
पर कल्पना तो अपनी जिद की पक्की है ही, मन पर्वत से बातें करने लगा। पर्वत राज ! तुम इतनी वनश्री से लदे हो, भाग-दौड़ की कोई चिन्ता भी तुम्हें नहीं है, बैठे-बैठे आनन्द के दिन गुजारते हो, तुम्हें किस बात की चिन्ता ? तुम्हें रुलाई क्यों आती है ?

पत्थर का पहाड़ चुप खड़ा था; पर कल्पना का पर्वत अपनी मनोव्यथा कहने ही लगा। बोला मेरे दिल का दर्द तुम्हें क्या मालूम ? मैं बड़ा ही ऊँचा हूँ, वनश्री से लदा हूँ, निश्चिन्त बैठा रहता हूँ । देखने को मेरे पास सब कुछ है, पर निष्क्रिय- निश्चेष्ट जीवन भी क्या कोई जीवन है। जिससे गति नहीं, आशा नहीं, स्फूर्ति नहीं, प्रयत्न नहीं वह जीवित होते हुए भी मृतक के समान है । सक्रियता में ही आनन्द है । मौज के छानने और आराम करने में तो केवल काहिल की मुर्दनी की नीरवता मात्र है। इसे अनजान ही आराम और आनन्द कह सकते हैं। इस दृष्टि से क्रीड़ापन में जो जितना खेल लेता है, वह अपने को उतना ही तरो-ताजा और प्रफुल्लित अनुभव करता है । सृष्टि के सभी पुत्र प्रगति के पथ पर उल्लास भरे सैनिकों की तरह कदम पर कदम बढ़ाते, मोर्चे पर मोर्चा पार करते चले जाते हैं। दूसरी ओर मैं हूँ जो सम्पदाएँ अपने पेट में छिपाए मौज की छान रहा हूँ। कल्पना बेटी तुम मुझे सेठ कह सकती हो, अमीर कह सकती हो, भाग्यवान् कह सकती हो, पर हूँ तो मैं निष्क्रिय ही । संसार की सेवा में अपने पुरुषार्थ का परिचय देकर लोग अपना नाम इतिहास में अमर कर रहे हैं, कीर्तिवान् बन रहे हैं। अपने प्रयत्न का फल दूसरे को उठाते देखकर गर्व अनुभव कर रहे हैं, पर मैं हूँ जो अपना वैभव अपने तक ही समेटे बैठा हूँ । इस आत्मग्लानि से यदि रुलाई मुझे आती है, आँखो में आँसू बरसते और कीचड़ निकलते हैं, तो उसमें अनुचित ही क्या है?

मेरी नन्ही-सी कल्पना ने पर्वतराज से बातें कर लीं, समाधान भी पा लिया, पर वह भी खिन्न ही थी । बहुत देर तक यही सोचती रही, कैसा अच्छा होता, यदि इतना बड़ा पर्वत अपने टुकड़े-टुकड़े करके अनेकों
भवनों, सड़कों, पुलों के बनाने में खप सका होता । तब भले वह इतना बड़ा न रहता, सम्भव है इस प्रयत्न से उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता, लेकिन तब वह वस्तु: धन्य हुआ होता, वस्तु: उसका बड़प्पन सार्थक
हुआ होता । इन परिस्थितियों से वंचित रहने पर यदि पर्वतराज अपने को अभागा मानता है और अपने दुर्भाग्य को धिक्कारता हुआ सिर

धुनकर रोता है; तो उसका यह रोना सकारण ही है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर १८

सुनसान के सहचर १८
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........कुली ही गायब था। कल्पना की दौड़ ने एक ही अनुमान लगाया कि वह जान का खतरा देखकर कहीं छिप गया है या किसी पेड़ पर चढ़ गया है। हम लोगों ने अपने भाग्य के साथ अपने को बिलकुल अकेला असहाय पाया।

हम सब एक जगह बिल्कुल नजदीक इकट्ठे हो गए। दो-दो ने चारों दिशाओं की ओर मुँह कर लिए, लोहे की कील गड़ी हुई लाठियाँ जिन्हें लेकर चल रहे थे, बन्दूकों की भाँति सामने तान ली और तय कर लिया कि जिस पर रीछ हमला करे, तो उसके मुँह में कील गड़ी लाठी ढूँस दें और साथ ही सब लोग उस पर हमला कर दें, कोई भागे नहीं, अन्त तक सब साथ रहे, चाहे जिएँ, चाहे मरें। योजना के साथ सब लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, रीछ जो पहले हमारी ओर आते दिखाई दे रहे थे। नीचे की ओर उतरने लगे, हम लोगों ने चलने की रफ्तार काफी तेज कर दी, दूनी से अधिक जितनी जल्दी हो सके खतरे को पार कर लेने को ही सबकी इच्छा थी। ईश्वर का नाम सबकी जीभ पर था। मन में भय बुरी तरह समा रहा था। इस प्रकार एक-डेढ़ मील का रास्ता पारकिया।

कुहरा कुछ कम हुआ, आठ बज रहे थे। सूर्य का प्रकाश भी दीखने लगा। घनी वृक्षावली भी पीछे रह गई, भेड़-बकरी चराने वाले भी सामने दिखाई दिये। हम लोगों ने सन्तोष की साँस ली। अपने को खतरे से बाहर अनुभव किया और सुस्ताने के लिए बैठ गये । इतने में कुली भी पोछे से आ पहुँचा। हम लोगों को घबराया हुआ देखकर वह कारण पूछने लगा। साथियों ने कहा-तुम्हारे बताये हुए भालुओं से भगवान् ने जान बचा दी, पर तुमने अच्छा धोखा दिया, बजाय उपाय बताने के तुम खुद छिपे रहे। कुली सकपकाया, उसने समझा उन्हें कुछ भ्रम हो गया। हम लोगों ने उसके इशारे से भालू बताने की बात दुहराई तो वह सब बात समझ गया कि हम लोगों को क्या गलतफहमी हुई है। उसने कहा-"झेला गाँव का आलू मशहूर है। बहुत बड़ा-बड़ा पैदा होता है। ऐसी फसल इधर किसी गाँव में नहीं होती वही बात मैंने अँगुली के इशारे से बताई थी । झाला का आलू कहा था आपने उसे भालू समझा । वह काले जानवर तो यहाँ की काली गाय हैं, जो दिन भर इसी तरह चलती-फिरती हैं । कुहरे के कारण ही वे रीछ जैसी आपको दीखीं । यहाँ भालू कहाँ होते हैं, वे तो और ऊपर पाए जाते हैं, आप व्यर्थ ही डरे । मैं तो टट्टी करने के लिए छोटे झरने के पास बैठ गया था। साथ होता तो आपका भ्रम उसी समय दूर कर देता।

हम लोग अपनी मूर्खता पर हँसे भी और शर्मिन्दा भी हुए। विशेषतया उस साथी को जिसने कुली की बात को गलत तरह समझा, खूब लताड़ा गया। भय मजाक में बदल गया। दिन भर उस बात की चर्चा रही। उस डर के समय में जिस-जिस ने जो-जो कहा था और किया था उसे चर्चा का विषय बनाकर सारे दिन आपस की छींटाकशी चुहलबाजी होती रही। सब एक दूसरे को अधिक डरा हुआ परेशान सिद्ध करने में रस लेते । मंजिल आसानी से कट गई । मनोरंजन का अच्छा विषय रहा।

भालू की बात जो घण्टे भर पहले बिलकुल सत्य और जीवन-मरण की समस्या मालूम पड़ती रही, अन्त में एक और भ्रान्ति मात्र सिद्ध हुई। सोचता हूँ कि हमारे जीवन में ऐसी अनेकों भ्रांतियाँ घर किये हुए हैं और उनके कारण हम निरन्तर डरते रहते हैं, पर अंततः वे मानसिक दुर्बलता मात्र साबित होती हैं । हमारे ठाट-बाट, फैशन और आवास में कमी आ गई तो लोग हमें गरीब और मामूली समझेंगे, इस अपडर से अनेकों लोग अपने इतने खर्चे बढ़ाए रहते हैं, जिनको पूरा करना कठिन पड़ता है । लोग क्या कहेंगे यह बात चरित्र पतन के समय याद आवे तो ठीक भी है; पर यदि यह दिखावे में कमी के समय मन में आवे तो यही मानना पड़ेगा कि वह अपडर मात्र है, खर्चीला भी और व्यर्थ भी। सादगी से रहेंगे, तो गरीब समझे जायेंगे, कोई हमारी इज्जत न करेगा। यह भ्रम दुर्बल मस्तिष्कों में ही उत्पन्न होता है, जैसे कि हम लोगों को एक छोटी-सी नासमझी के कारण भालू का डर हुआ था। अनेकों चिन्ताएँ, परेशानियाँ, दुविधा, उत्तेजना, वासना कथा दुर्भावनाएँ आए दिन सामने खड़ी रहती हैं, लगता है यह संसार बड़ा दुष्ट और डरावना है। यहाँ की हर वस्तु भालू की तरह डरावनी है; पर जब आत्मज्ञान का प्रकाश होता है, अज्ञान का कुहरा फटता है, मानसिक दौर्बल्य घटता है, तो प्रतीत होता है कि जिसे हम भालू समझते थे, वह तो पहाड़ी गाय थी। जिन्हें शत्रु मानते हैं, वे तो हमारे अपने ही स्वरूप हैं। ईश्वर अंश मात्र है। ईश्वर हमारा प्रियपात्र है तो उसकी रचना भी मंगलमय होनी चाहिए। उसे जितने विकृत रूप में हम चित्रित करते हैं, उतना ही उससे डर लगता है । यह अशुद्ध चित्रण हमारी मानसिक भ्रान्ति है, वैसी ही जैसी कि कुली के शब्द आलू को भालू समझकर उत्पन्न कर ली गई थी।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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सुनसान के सहचर १७

सुनसान के सहचर १७
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आलू का भालू

आज गंगोत्री यात्रियों का एक दल और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमी थे-पाँच पुरुष, दो स्त्रियां । हमारा बोझा तो हमारे कन्धे पर था, पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिए चल रहा था। कुली देहाती था, उसकी भाषा भी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी। स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था । झाला चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे, तो उँगली का इशारा करके उसने कुछ विचित्र डरावनी-सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा । सब बात तो समझ में नहीं आई, पर दल के एक आदमी ने इतना ही समझा भालू-भालू, वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था, कोई चीज ठीक से दिखाई नहीं पड़ती थी, पर जिधर कुली ने इशारा किया था, उधर काले-काले कोई जानवर उसे घूमते नजर आये।

जिस साथी ने कुली के मुँह से भालू-भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा में काले-काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू-रीछ घूम रहे हैं । वह पीछे था, पैर दाब कर जल्दी-जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय, कुछ देर में वह हमारे साथ आ गया । होंठ सूख रहे थे और भय से काँप रहा था । उसने हम सबको रोका और नीचे काले जानवर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं, अब यहाँ जान का खतरा ।

डर तो हम सभी गये, पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाये? जंगल काफी घना था-डरावना भी, उसमें रीछ के होने की बात असम्भव न थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढ़ी-चढ़ी बातें परसों ही साथी यात्रियों से सुनी थीं, जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था, काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीख रही थी, पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता दी है, अब संदेह की बात नहीं । सोचा-कुली से ही पूछें कि अब क्या करना चाहिए, पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब ......
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर १६

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ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते

कई दिन से शरीर को सुन्न कर देने वाले बर्फीले ठण्डे पानी से स्नान करते आ रहे थे । किसी प्रकार हिम्मत बाँधकर एक-दो डुबकी तो लगा लेते थे, पर जाड़े के मारे शरीर को ठीक तरह रगड़ना और उस तरह स्नान करना नहीं बन पड़ रहा था, जैसा देह की सफाई की दृष्टि से आवश्यक है। आगे जगननी चट्टी पर पहुंचे, तो पहाड़ के ऊपर वाले तीन तप्त कुण्डों का पता चला, जहाँ से गरम पानी निकलता है। ऐसा सुयोग पाकर मल-मलकर स्नान करने की इच्छा प्रबल हो गई । गंगा का पुल पार कर ऊँची चढ़ाई की टेकरी को कई जगह बैठ-बैठकर हाँफते-हाँफते पार किया और तप्त कुण्डों पर जा पहुँचे । बराबर-बराबर तीन कुण्ड थे, एक का पानी इतना गरम था कि उसमें नहाना तो दूर, हाथ दे सकना भी कठिन था। बताया गया कि यदि चावल दाल की पोटली बाँधकर इस कुण्ड में डाल दी जाय तो वह खिचड़ी कुछ देर में पक जाती है । यह प्रयोग तो हम न कर सके, पर पास वाले दूसरे कुण्ड में जिसका पानी सदा गरम रहता है, खूब मल-मलकर स्नान किया और हफ्तों की अधूरी आकांक्षा पूरी की, कपड़े भी गरम पानी से खूब धुले, अच्छे साफ

हुए। सोचता हूँ कि पहाड़ों पर बर्फ गिरती रहती है और छाती में से झरने वाले झरने सदा बर्फ सा ठण्डा जल प्रवाहित ही करते हैं, उनमें कहीं-कहीं ऐसे उष्ण सोते क्यों फूट पड़ते हैं ? मालूम होता है कि पर्वत के भीतर कोई गन्धक की परत है वही अपने समीप से गुजरने वाली जलधारा को असह्य उष्णता दे देती है । इसी तरह किसी सज्जन में अनेक शीतल शांतिदायक गुण होने से उसका व्यवहार ठण्डे सोतों की तरह शीतल हो सकता है, पर यदि और बुद्धि की एक भी परत छिपी हो, तो उसकी गर्मी गरम स्रोतों की तरह वाहर फूट पड़ती है और वह छिपती नहीं।जो पर्वत अपनी शीतलता को अक्षुण्य बनाए रहना चाहते हैं, उन्हें इस प्रकार की गन्धक जैसी विषैली पत्तों को बाहर निकाल फेंकना चाहिए । एक दूसरा कारण इन तप्त कुण्डों का और भी हो सकता है कि शीतल पर्वत अपने भीतर के इस विकार को निकाल-निकाल कर बाहर फेंक रहा हो और अपनी दुर्बलता को छिपाने की अपेक्षा सबके सामने प्रकट कर रहा हो- जिससे उसे कपटी और ढोंगी न कहा जा सके। दुर्गुणों का होना बुरी बात है, पर उन्हें छिपाना उससे भी बुरा है- इस तथ्य को यह पर्वत जानते हैं, यदि मनुष्य भी इसे जान लेता तो कितना अच्छा होता।

यह समझ में आता है कि हमारे जैसे ठंडे स्नान से खिन्न व्यक्तियों की गरम जल से स्नान कराने की सुविधा और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए पर्वत ने अपने भीतर बची थोड़ी गर्मी को बाहर निकालकर रख दिया हो । बाहर से तो वह भी ठण्डा हो चला, फिर भीतर कुछ गर्मी बच गई होगी। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठण्डा हो चला, तो इस थोड़ी-सी गर्मी को बचाकर ही क्या करूँगा, इसे भी क्यों न जरूरतमन्दों को दे डालूँ । उस आत्मदानी पर्वत की तरह कोई व्यक्ति भी ऐसे हो सकते हैं, जो स्वयं अभावग्रस्त, कष्टसाध्य जीवन व्यतीत करते हों और इतने पर भी जो शक्ति बची हो उसे भी जनहित में लगाकर इन तप्त कुण्डों का आदर्श उपस्थित करें। इस शीतप्रदेश का वह तप्त कुण्ड भुलाये नहीं भूलेगा। मेरे जैसे हजारों यात्री उसका गुणगान करते रहेंगे, उसमें त्याग भी तो असाधारण है। स्वयं ठण्डे रहकर दूसरों के लिए गर्मी प्रदान करना, भूखे रहकर दूसरों की रोटी जुटाने के समान है । सोचता हूँ बुद्धिहीन जड़-पर्वत जब इतना कर सकता है तो क्या बुद्धिमान् बनने वाले

मनुष्य को केवल स्वार्थी ही रहना चाहिए ?

- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर १५

सुनसान के सहचर १५
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पीली मक्खियाँ

आज हम लोग सघन वन में होकर चुपचाप चले जा रहे थे, तो सेव के पेड़ों पर भिनभिनाती फिरने वाली पीली मक्खियां हम लोगों पर टूट पड़ी, बुरी तरह चिपट गईं, छुटाने से भी न छूटती थीं । हाथों से, कपड़ों से उन्हें हटाया भी, भागे भी, पर उन्होंने देर तक पीछा किया। किसी प्रकार गिरते-पड़ते लगभग आधा मील आगे निकल गये, तब उनसे पीछा छूटा । उनके जहरीले डंक जहां लगे थे, सूजन आ गई, दर्द भी होता रहा।

सोचता हूँ इन मक्खियों को इस प्रकार आक्रमण करने की क्यों सूझी, क्या इनको इसमें कुछ मिल गया है, हमें सताकर इनने क्या पाया? लगता है, यह मक्खियाँ सोचती होंगी कि यह वनप्रदेश हमारा है, हमें यहाँ रहना चाहिए। हमारे लिए यह सुरक्षित प्रदेश रहे, कोई दूसरा इधर पदार्पण न करे। उनकी अपनी भावना के विपरीत हमें उधर से गुजरते देखा कि यह हमारे प्रदेश में हस्तक्षेप करते हैं, हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार चलाते हैं। हमारे उधर से गुजरने को सम्भव है, उनने ढीठता समझा हो और अपने बल एवं दर्प का प्रदर्शन करने एवं हस्तक्षेप का मजा चखाने के लिए आक्रमण किया हो ।

यदि ऐसी ही बात है, तो इन मक्खियों की मूर्खता थी । वह वन तो ईश्वर का बनाया हुआ था, कुछ उनने स्वयं थोड़े ही बनाया था । उन्हें तो पेड़ों पर रहकर अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए थी । सारे प्रदेश पर कब्जा करने की उनकी लालसा व्यर्थ थी, क्योंकि वे इतने बड़े प्रदेश का आखिर करते क्या ? फिर उन्हें सोचना चाहिए था कि यह साझे की दुनियाँ है, सभी लोग उसका मिल-जुलकर उपयोग करें, तो ही ठीक है। यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वनश्री की छाया-शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे, तो थोड़ा भी उठा लेने-देने की सहिष्णुता रखती । उनने अनुदारता करके हमें काटा, सताया, अपने डंक खोये, कोई-कोई तो इस झंझट में कुचल भी गयीं, घायल भी हुईं और मर भी गई । वे क्रोध और गर्व न दिखाती, तो क्यों उन्हें व्यर्थ की हानि उठानी पड़ती और क्यों हम सबकी दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण और अधिकार लिप्सा में मुझे कोई बुद्धिमानी दिखाई न दी, यह "पीली मक्खियाँ" सचमुच ही ठीक शब्द था।

पर इन बेचारी मक्खियों को ही क्यों कोसा जाये ? उन्हीं को मूर्ख क्यों कहा जाये ? जबकि आज हम मनुष्य भी इसी रास्ते पर चल रहे हैं। इस सृष्टि में जो विपुल उपभोग सामग्री परमात्मा ने पैदा की है, वह उसके सभी पुत्रों के लिए मिलकर-बाँटकर खाने और लाभ उठाने के लिए है, पर हममें से हर कोई जितना हड़प सके, उतने पर कब्जा जमाने के लिए उतावला हो रहा है। यह भी नहीं सोचा जाता कि शरीर की, कुटुम्ब की आवश्यकता थोड़ी ही है, उतने तक सीमित रहें, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं पर कब्जा जमाकर दूसरों को क्यों कठिनाई में डालें और क्यों मालिकी को व्यर्थ बोझ सिर पर लादें, जबकि उस मालिकी को देर तक अपने कब्जे में रख नहीं सकते।

पीली मक्खियों की तरह मनुष्य भी अधिकार लिप्सा के स्वार्थ और संग्रह में अन्धा हो रहा है। मिल-बाँटकर खाने की नीति उसकी समझ में ही नहीं आती, जो कोई उसे अपने स्वार्थ में बाधक होते दीखता है, उसी पर आँखें दिखाता है, अपनी शक्ति प्रदर्शित करता है और पीली मक्खियों की तरह टूट पड़ता है, इससे उनके इस व्यवहार से कितना कष्ट होता है इसकी चिन्ता किसे है?

पीली मक्खियाँ नन्हें-नन्हें डंक मारकर आधा मील पीछा करके वापिस लौट गईं, पर मनुष्य की अधिकार लिप्सा, स्वार्थपरता और अहंकार से उद्धत होकर किये जाने वाले आक्रमणों की भयंकरता को जब सोचता हूँ तो बेचारी पीली मक्खियों को ही बुरा-भला कहने में जीभ सकुचाने लगती है।

- श्रीराम शर्मा आचार्य
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