शनिवार, 28 नवंबर 2020

दूरदर्शी

शनिवार, 28 नवंबर 2020

👉 दूरदर्शिता का तकाजा

जो आज का, अभी का, तुरन्त का लाभ सोचता है और इसके लिए कल की हानि की भी परवा नहीं करता वह उतावला मन विपत्तियों को आमंत्रण देता रहता है। प्रत्येक महान कार्य समयसाध्य और श्रमसाध्य होता है। उसकी पूर्ति के लिए आरंभ में बहुत कष्ट सहना पड़ता है, प्रतीक्षा करनी होती है और धैर्य रखना होता है। जिसमें इतना धैर्य नहीं वह तत्काल के छोटे लाभ पर ही फिसल पड़ता है और कई बार तो यह भी नहीं सोचता कि कल इसका क्या परिणाम होगा? चोर, ठग, बेईमान, उचक्के लोग तुरन्त कुछ फायदा उठा लेते हैं पर जिन व्यक्तियों को एक बार दुख दिया उनसे सदा के लिए संबन्ध समाप्त हो जाते हैं। फिर नया शिकार ढूँढ़ना पड़ता है। ऐसे लोग अपने ही परिचितों की नजर को बचाते हुए अतृप्ति और आत्मग्लानि से ग्रसित प्रेत−पिशाच की तरह जहाँ−तहाँ मारे−मारे फिरते रहते हैं और अन्त में उनका कोई सच्चा सहायक नहीं रह जाता। 

वासना के वशीभूत होकर लोग ब्रह्मचर्य की मर्यादा का उल्लंघन करते रहते हैं। तत्काल तो उन्हें कुछ प्रसन्नता होती है पर पीछे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ही चौपट हो जाता है पर पीछे विरोध एवं शत्रुता का सामना करना पड़ता है तो उस क्षणिक आवेश पर पछताने की बात ही हाथ में शेष रह जाती है। स्कूल पढ़ने जाना छोड़कर फीस के पैसे सिनेमा में खर्च कर देने वाले विद्यार्थी को उस समय अपनी करतूत पर दुख नहीं वरन् गर्व ही होता है पर पीछे जब वह अशिक्षित रह जाता है और जीवन को कष्टमय प्रक्रियाओं के साथ व्यतीत करता है तब उसे अपनी भूल का पता चलता है। दूरदर्शिता और अदूरदर्शिता का अन्तर स्पष्ट है। उसके परिणाम भी साफ हैं। मन की अदूरदर्शिता एक विपत्ति है। जिसमें तुरन्त का कुछ लाभ भले ही दिखाई पड़े पर अंत बड़ा दुखदायी होता है। मन में इतनी विवेकशीलता होनी ही चाहिए कि वह आज की, अभी की ही बात न सोचकर कल की, भविष्य की और अन्तिम परिणाम की बात सोचें। जिसने अपने विचारों में दूरदर्शिता के लिए स्थान रखा है उसे ही बुद्धिमान कहा जा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

सोमवार, 9 नवंबर 2020

उज्ज्वल आशा

उज्ज्वल भविष्य की आशा

जिनने आशा और उत्साह का स्वभाव बना लिया है वे उज्ज्वल भविष्य के उदीयमान सूर्य पर विश्वास करते हैं। ठीक है, कभी−कभी कोई बदली भी आ जाती है और धूप कुछ देर के लिए रुक भी जाती है पर बादलों के कारण क्या सूर्य सदा के लिए अस्त हो सकता है? असफलताऐं और बाधाऐं आते रहना स्वाभाविक है उनका जीवन में आते रहना वैसा ही है जैसा आकाश में धूप−छाँह की आँख मिचौली होते रहना। कठिनाइयाँ मनुष्य के पुरुषार्थ को जगाने और अधिक सावधानी के साथ आगे बढ़ने की चेतावनी देती जाती है। उनमें डरने की कोई बात नहीं। आज असफलता मिली है, आज प्रतिकूलता उपस्थित है, आज संकट का सामना करना पड़ रहा है तो कल भी वैसी ही स्थिति बनी रहेगी, ऐसा क्यों सोचा जाय? आशावादी व्यक्ति छोटी−मोटी असफलताओं की परवाह नहीं करते। वे रास्ता खोजते हैं और धैर्य, साहस, विवेक एवं पुरुषार्थ को मजबूती के साथ पकड़े रहते हैं क्योंकि आपत्ति के समय में  यही चार सच्चे मित्र बताये गये हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

सुनसान के सहचर २०

सुनसान के सहचर २०
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लदी हुई बकरी

छोटा-सा जानवर बकरी इस पर्वतीय प्रदेश की तरणतारिणी कामधेनु कही जा सकती है। वह दूध देती है, ऊन देती है, बच्चे देती है, साथ ही वजन भी ढोती है। आज बड़े-बड़े बालों वाली बकरियों का एक झुण्ड रास्ते में मिला, लगभग सौ- सवा सौ होंगी, सभी लदी हुई थीं। गुड़-चावल, आटा लादकर वे गंगोत्री की ओर ले जा रही थीं हर एक पर उसके कद और बल के अनुसार दस-पन्द्रह सेर वजन लदा हुआ था। माल असबाव की ढुलाई के लिए खच्चरों के अतिरिक्त इधर बकरियाँ ही साधन हैं। पहाड़ों की छोटी-छोटी पगडंडियों पर दूसरे जानवर या वाहन काम तो नहीं कर सकते।

सोचता हूँ कि जीवन की समस्याएँ हल करने के लिए बड़े-बड़े विशाल साधनों पर जोर देने की कोई इतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है, जितनी समझी जाती है, जब कि व्यक्ति साधारण उपकरणों से अपने निर्वाह के साधन जुटाकर शांतिपूर्वक रह सकता है। सीमित औद्योगीकरण की बात दूसरी है, पर यदि वे बढ़ते ही रहे तो बकरियों तथा उनके पालने वाले जैसे लाखों की रोजी-रोटी छीनकर चन्द उद्योगपतियों की कोठियों में जमा हो सकती है। संसार में जो युद्ध की घटाएँ आज उमड़ रही हैं, उसके मूल में भी इस उद्योग व्यवस्था के लिए मार्केट जुटाने, उपनिवेश बनाने की लालसा ही काम कर रही है ।

बकरियों की पंक्ति देखकर मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हो रहा है कि व्यक्ति यदि छोटी सीमा में रहकर जीवन विकास की व्यवस्था जुटाए तो इसी प्रकार शान्तिपूर्वक रह सकता है, जिस प्रकार यह बकरियों वाले भले और भोले पहाड़ी रहते हैं। प्राचीनकाल में धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना ही भारतीय समाज का आदर्श था । ऋषि- मुनि एक बहुत छोटी इकाई के रूप में आश्रमों और कुटियों मे जीवन-यापन करते थे। ग्राम उससे कुछ बड़ी इकाई थे, सभी अपनी आवश्यकताएँ अपने क्षेत्र में, अपने समाज से पूरी करते थे और हिल-मिलकर सुखी जीवन बिताते थे, न इसमें भ्रष्टाचार की गुंजायश थी न बदमाशी की। आज औद्योगीकरण की घुड़दौड़ में छोटे गाँव उजड़ रहे हैं, बड़े शहर बस रहे हैं, गरीब पिस रहे हैं, अमीर पनप रहे हैं। विकराल राक्षस की तरह धड़धड़ाती हुई मशीनें मनुष्य के स्वास्थ्य को, स्नेह सम्बन्धों को, सदाचार को भी पैसे डाल रही हैं । इस यंत्रवाद, उद्योगवाद, पूंजीवाद की नींव पर जो कुछ खड़ा किया जा रहा है, उसका नाम विकास रखा गया है, पर

यह अन्तत: विनाशकारी ही सिद्ध होगा।

विचार असम्बद्ध होते जा रहे हैं, छोटी बात मस्तिष्क में बड़ा रूप धारण कर रही है, इसलिए इन पंक्तियों को यहीं समाप्त करना उचित है, फिर भी बकरियाँ भुलाये नहीं भूलतीं । वे हमारे प्राचीन भारतीय समाज रचना की एक स्मृति को ताजा करती हैं, इस सभ्यता के युग में उन बेचारियों की उपयोगिता कौन बनेगा ? पिछड़े युग की निशानी कहकर उनका उपहास ही होगा, पर सत्य-सत्य ही रहेगा, मानव जाति जब कभी शान्ति और संतोष के लक्ष्य पर पहुँचेगी, तब धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण अवश्य हो रहा होगा और लोग इसी तरह श्रम और सन्तोष से परिपूर्ण जीवन बिता रहे होंगे। जैसे बकरी वाले अपनी मैं-मैं करती हुई बकरियों के साथ जीवन बिताते हैं।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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सुनसान के सहचर १९

सुनसान के सहचर १९
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रोते पहाड़

आज रास्ते में "रोते पहाड़" मिले । उनके पत्थर नरम थे, ऊपर किसी सोते का पानी रुका पड़ा था । पानी को निकलने के लिए जगह न मिली । नरम पत्थर उसे चूसने लगे, वह चूसा हुआ पानी जाता कहाँ ? नीचे की ओर वह पहाड़ को गीला किये हुए था। जहाँ जगह थी वहाँ वह गीलापन धीरे-धीरे इकट्ठा होकर बूंदों के रूप में टपक रहा था। इन टपकती बूंदों को लोग अपनी भावना के अनुसार आँसू की बूँदें कहते हैं। जहाँ-तहाँ से मिट्टी उड़कर इस गीलेपन से चिपक जाती है, उसमें हरियाली के जीवाणु भी आ जाते हैं। इस चिपकी हुई मिट्टी पर एक हरी मुलायम काई जैसी उग आती है । काई को पहाड़ में "कीचड़" कहते है। जब वह रोता है तो आँखें दुःखती हैं । रोते हुए पहाड़ आज हम लोगों ने देखे, उनके आँसू भी कहीं से पोंछे । कीचड़ों को टटोल कर देखा । वह इतना ही कर सकते थे । पहाड़ तू क्यों रोता है? इसे कौन पूछता और क्यों वह इसका उत्तर देता ?
पर कल्पना तो अपनी जिद की पक्की है ही, मन पर्वत से बातें करने लगा। पर्वत राज ! तुम इतनी वनश्री से लदे हो, भाग-दौड़ की कोई चिन्ता भी तुम्हें नहीं है, बैठे-बैठे आनन्द के दिन गुजारते हो, तुम्हें किस बात की चिन्ता ? तुम्हें रुलाई क्यों आती है ?

पत्थर का पहाड़ चुप खड़ा था; पर कल्पना का पर्वत अपनी मनोव्यथा कहने ही लगा। बोला मेरे दिल का दर्द तुम्हें क्या मालूम ? मैं बड़ा ही ऊँचा हूँ, वनश्री से लदा हूँ, निश्चिन्त बैठा रहता हूँ । देखने को मेरे पास सब कुछ है, पर निष्क्रिय- निश्चेष्ट जीवन भी क्या कोई जीवन है। जिससे गति नहीं, आशा नहीं, स्फूर्ति नहीं, प्रयत्न नहीं वह जीवित होते हुए भी मृतक के समान है । सक्रियता में ही आनन्द है । मौज के छानने और आराम करने में तो केवल काहिल की मुर्दनी की नीरवता मात्र है। इसे अनजान ही आराम और आनन्द कह सकते हैं। इस दृष्टि से क्रीड़ापन में जो जितना खेल लेता है, वह अपने को उतना ही तरो-ताजा और प्रफुल्लित अनुभव करता है । सृष्टि के सभी पुत्र प्रगति के पथ पर उल्लास भरे सैनिकों की तरह कदम पर कदम बढ़ाते, मोर्चे पर मोर्चा पार करते चले जाते हैं। दूसरी ओर मैं हूँ जो सम्पदाएँ अपने पेट में छिपाए मौज की छान रहा हूँ। कल्पना बेटी तुम मुझे सेठ कह सकती हो, अमीर कह सकती हो, भाग्यवान् कह सकती हो, पर हूँ तो मैं निष्क्रिय ही । संसार की सेवा में अपने पुरुषार्थ का परिचय देकर लोग अपना नाम इतिहास में अमर कर रहे हैं, कीर्तिवान् बन रहे हैं। अपने प्रयत्न का फल दूसरे को उठाते देखकर गर्व अनुभव कर रहे हैं, पर मैं हूँ जो अपना वैभव अपने तक ही समेटे बैठा हूँ । इस आत्मग्लानि से यदि रुलाई मुझे आती है, आँखो में आँसू बरसते और कीचड़ निकलते हैं, तो उसमें अनुचित ही क्या है?

मेरी नन्ही-सी कल्पना ने पर्वतराज से बातें कर लीं, समाधान भी पा लिया, पर वह भी खिन्न ही थी । बहुत देर तक यही सोचती रही, कैसा अच्छा होता, यदि इतना बड़ा पर्वत अपने टुकड़े-टुकड़े करके अनेकों
भवनों, सड़कों, पुलों के बनाने में खप सका होता । तब भले वह इतना बड़ा न रहता, सम्भव है इस प्रयत्न से उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता, लेकिन तब वह वस्तु: धन्य हुआ होता, वस्तु: उसका बड़प्पन सार्थक
हुआ होता । इन परिस्थितियों से वंचित रहने पर यदि पर्वतराज अपने को अभागा मानता है और अपने दुर्भाग्य को धिक्कारता हुआ सिर

धुनकर रोता है; तो उसका यह रोना सकारण ही है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर १८

सुनसान के सहचर १८
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........कुली ही गायब था। कल्पना की दौड़ ने एक ही अनुमान लगाया कि वह जान का खतरा देखकर कहीं छिप गया है या किसी पेड़ पर चढ़ गया है। हम लोगों ने अपने भाग्य के साथ अपने को बिलकुल अकेला असहाय पाया।

हम सब एक जगह बिल्कुल नजदीक इकट्ठे हो गए। दो-दो ने चारों दिशाओं की ओर मुँह कर लिए, लोहे की कील गड़ी हुई लाठियाँ जिन्हें लेकर चल रहे थे, बन्दूकों की भाँति सामने तान ली और तय कर लिया कि जिस पर रीछ हमला करे, तो उसके मुँह में कील गड़ी लाठी ढूँस दें और साथ ही सब लोग उस पर हमला कर दें, कोई भागे नहीं, अन्त तक सब साथ रहे, चाहे जिएँ, चाहे मरें। योजना के साथ सब लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, रीछ जो पहले हमारी ओर आते दिखाई दे रहे थे। नीचे की ओर उतरने लगे, हम लोगों ने चलने की रफ्तार काफी तेज कर दी, दूनी से अधिक जितनी जल्दी हो सके खतरे को पार कर लेने को ही सबकी इच्छा थी। ईश्वर का नाम सबकी जीभ पर था। मन में भय बुरी तरह समा रहा था। इस प्रकार एक-डेढ़ मील का रास्ता पारकिया।

कुहरा कुछ कम हुआ, आठ बज रहे थे। सूर्य का प्रकाश भी दीखने लगा। घनी वृक्षावली भी पीछे रह गई, भेड़-बकरी चराने वाले भी सामने दिखाई दिये। हम लोगों ने सन्तोष की साँस ली। अपने को खतरे से बाहर अनुभव किया और सुस्ताने के लिए बैठ गये । इतने में कुली भी पोछे से आ पहुँचा। हम लोगों को घबराया हुआ देखकर वह कारण पूछने लगा। साथियों ने कहा-तुम्हारे बताये हुए भालुओं से भगवान् ने जान बचा दी, पर तुमने अच्छा धोखा दिया, बजाय उपाय बताने के तुम खुद छिपे रहे। कुली सकपकाया, उसने समझा उन्हें कुछ भ्रम हो गया। हम लोगों ने उसके इशारे से भालू बताने की बात दुहराई तो वह सब बात समझ गया कि हम लोगों को क्या गलतफहमी हुई है। उसने कहा-"झेला गाँव का आलू मशहूर है। बहुत बड़ा-बड़ा पैदा होता है। ऐसी फसल इधर किसी गाँव में नहीं होती वही बात मैंने अँगुली के इशारे से बताई थी । झाला का आलू कहा था आपने उसे भालू समझा । वह काले जानवर तो यहाँ की काली गाय हैं, जो दिन भर इसी तरह चलती-फिरती हैं । कुहरे के कारण ही वे रीछ जैसी आपको दीखीं । यहाँ भालू कहाँ होते हैं, वे तो और ऊपर पाए जाते हैं, आप व्यर्थ ही डरे । मैं तो टट्टी करने के लिए छोटे झरने के पास बैठ गया था। साथ होता तो आपका भ्रम उसी समय दूर कर देता।

हम लोग अपनी मूर्खता पर हँसे भी और शर्मिन्दा भी हुए। विशेषतया उस साथी को जिसने कुली की बात को गलत तरह समझा, खूब लताड़ा गया। भय मजाक में बदल गया। दिन भर उस बात की चर्चा रही। उस डर के समय में जिस-जिस ने जो-जो कहा था और किया था उसे चर्चा का विषय बनाकर सारे दिन आपस की छींटाकशी चुहलबाजी होती रही। सब एक दूसरे को अधिक डरा हुआ परेशान सिद्ध करने में रस लेते । मंजिल आसानी से कट गई । मनोरंजन का अच्छा विषय रहा।

भालू की बात जो घण्टे भर पहले बिलकुल सत्य और जीवन-मरण की समस्या मालूम पड़ती रही, अन्त में एक और भ्रान्ति मात्र सिद्ध हुई। सोचता हूँ कि हमारे जीवन में ऐसी अनेकों भ्रांतियाँ घर किये हुए हैं और उनके कारण हम निरन्तर डरते रहते हैं, पर अंततः वे मानसिक दुर्बलता मात्र साबित होती हैं । हमारे ठाट-बाट, फैशन और आवास में कमी आ गई तो लोग हमें गरीब और मामूली समझेंगे, इस अपडर से अनेकों लोग अपने इतने खर्चे बढ़ाए रहते हैं, जिनको पूरा करना कठिन पड़ता है । लोग क्या कहेंगे यह बात चरित्र पतन के समय याद आवे तो ठीक भी है; पर यदि यह दिखावे में कमी के समय मन में आवे तो यही मानना पड़ेगा कि वह अपडर मात्र है, खर्चीला भी और व्यर्थ भी। सादगी से रहेंगे, तो गरीब समझे जायेंगे, कोई हमारी इज्जत न करेगा। यह भ्रम दुर्बल मस्तिष्कों में ही उत्पन्न होता है, जैसे कि हम लोगों को एक छोटी-सी नासमझी के कारण भालू का डर हुआ था। अनेकों चिन्ताएँ, परेशानियाँ, दुविधा, उत्तेजना, वासना कथा दुर्भावनाएँ आए दिन सामने खड़ी रहती हैं, लगता है यह संसार बड़ा दुष्ट और डरावना है। यहाँ की हर वस्तु भालू की तरह डरावनी है; पर जब आत्मज्ञान का प्रकाश होता है, अज्ञान का कुहरा फटता है, मानसिक दौर्बल्य घटता है, तो प्रतीत होता है कि जिसे हम भालू समझते थे, वह तो पहाड़ी गाय थी। जिन्हें शत्रु मानते हैं, वे तो हमारे अपने ही स्वरूप हैं। ईश्वर अंश मात्र है। ईश्वर हमारा प्रियपात्र है तो उसकी रचना भी मंगलमय होनी चाहिए। उसे जितने विकृत रूप में हम चित्रित करते हैं, उतना ही उससे डर लगता है । यह अशुद्ध चित्रण हमारी मानसिक भ्रान्ति है, वैसी ही जैसी कि कुली के शब्द आलू को भालू समझकर उत्पन्न कर ली गई थी।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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सुनसान के सहचर १७

सुनसान के सहचर १७
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आलू का भालू

आज गंगोत्री यात्रियों का एक दल और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमी थे-पाँच पुरुष, दो स्त्रियां । हमारा बोझा तो हमारे कन्धे पर था, पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिए चल रहा था। कुली देहाती था, उसकी भाषा भी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी। स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था । झाला चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे, तो उँगली का इशारा करके उसने कुछ विचित्र डरावनी-सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा । सब बात तो समझ में नहीं आई, पर दल के एक आदमी ने इतना ही समझा भालू-भालू, वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था, कोई चीज ठीक से दिखाई नहीं पड़ती थी, पर जिधर कुली ने इशारा किया था, उधर काले-काले कोई जानवर उसे घूमते नजर आये।

जिस साथी ने कुली के मुँह से भालू-भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा में काले-काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू-रीछ घूम रहे हैं । वह पीछे था, पैर दाब कर जल्दी-जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय, कुछ देर में वह हमारे साथ आ गया । होंठ सूख रहे थे और भय से काँप रहा था । उसने हम सबको रोका और नीचे काले जानवर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं, अब यहाँ जान का खतरा ।

डर तो हम सभी गये, पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाये? जंगल काफी घना था-डरावना भी, उसमें रीछ के होने की बात असम्भव न थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढ़ी-चढ़ी बातें परसों ही साथी यात्रियों से सुनी थीं, जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था, काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीख रही थी, पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता दी है, अब संदेह की बात नहीं । सोचा-कुली से ही पूछें कि अब क्या करना चाहिए, पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब ......
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर १६

सुनसान के सहचर १६
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ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते

कई दिन से शरीर को सुन्न कर देने वाले बर्फीले ठण्डे पानी से स्नान करते आ रहे थे । किसी प्रकार हिम्मत बाँधकर एक-दो डुबकी तो लगा लेते थे, पर जाड़े के मारे शरीर को ठीक तरह रगड़ना और उस तरह स्नान करना नहीं बन पड़ रहा था, जैसा देह की सफाई की दृष्टि से आवश्यक है। आगे जगननी चट्टी पर पहुंचे, तो पहाड़ के ऊपर वाले तीन तप्त कुण्डों का पता चला, जहाँ से गरम पानी निकलता है। ऐसा सुयोग पाकर मल-मलकर स्नान करने की इच्छा प्रबल हो गई । गंगा का पुल पार कर ऊँची चढ़ाई की टेकरी को कई जगह बैठ-बैठकर हाँफते-हाँफते पार किया और तप्त कुण्डों पर जा पहुँचे । बराबर-बराबर तीन कुण्ड थे, एक का पानी इतना गरम था कि उसमें नहाना तो दूर, हाथ दे सकना भी कठिन था। बताया गया कि यदि चावल दाल की पोटली बाँधकर इस कुण्ड में डाल दी जाय तो वह खिचड़ी कुछ देर में पक जाती है । यह प्रयोग तो हम न कर सके, पर पास वाले दूसरे कुण्ड में जिसका पानी सदा गरम रहता है, खूब मल-मलकर स्नान किया और हफ्तों की अधूरी आकांक्षा पूरी की, कपड़े भी गरम पानी से खूब धुले, अच्छे साफ

हुए। सोचता हूँ कि पहाड़ों पर बर्फ गिरती रहती है और छाती में से झरने वाले झरने सदा बर्फ सा ठण्डा जल प्रवाहित ही करते हैं, उनमें कहीं-कहीं ऐसे उष्ण सोते क्यों फूट पड़ते हैं ? मालूम होता है कि पर्वत के भीतर कोई गन्धक की परत है वही अपने समीप से गुजरने वाली जलधारा को असह्य उष्णता दे देती है । इसी तरह किसी सज्जन में अनेक शीतल शांतिदायक गुण होने से उसका व्यवहार ठण्डे सोतों की तरह शीतल हो सकता है, पर यदि और बुद्धि की एक भी परत छिपी हो, तो उसकी गर्मी गरम स्रोतों की तरह वाहर फूट पड़ती है और वह छिपती नहीं।जो पर्वत अपनी शीतलता को अक्षुण्य बनाए रहना चाहते हैं, उन्हें इस प्रकार की गन्धक जैसी विषैली पत्तों को बाहर निकाल फेंकना चाहिए । एक दूसरा कारण इन तप्त कुण्डों का और भी हो सकता है कि शीतल पर्वत अपने भीतर के इस विकार को निकाल-निकाल कर बाहर फेंक रहा हो और अपनी दुर्बलता को छिपाने की अपेक्षा सबके सामने प्रकट कर रहा हो- जिससे उसे कपटी और ढोंगी न कहा जा सके। दुर्गुणों का होना बुरी बात है, पर उन्हें छिपाना उससे भी बुरा है- इस तथ्य को यह पर्वत जानते हैं, यदि मनुष्य भी इसे जान लेता तो कितना अच्छा होता।

यह समझ में आता है कि हमारे जैसे ठंडे स्नान से खिन्न व्यक्तियों की गरम जल से स्नान कराने की सुविधा और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए पर्वत ने अपने भीतर बची थोड़ी गर्मी को बाहर निकालकर रख दिया हो । बाहर से तो वह भी ठण्डा हो चला, फिर भीतर कुछ गर्मी बच गई होगी। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठण्डा हो चला, तो इस थोड़ी-सी गर्मी को बचाकर ही क्या करूँगा, इसे भी क्यों न जरूरतमन्दों को दे डालूँ । उस आत्मदानी पर्वत की तरह कोई व्यक्ति भी ऐसे हो सकते हैं, जो स्वयं अभावग्रस्त, कष्टसाध्य जीवन व्यतीत करते हों और इतने पर भी जो शक्ति बची हो उसे भी जनहित में लगाकर इन तप्त कुण्डों का आदर्श उपस्थित करें। इस शीतप्रदेश का वह तप्त कुण्ड भुलाये नहीं भूलेगा। मेरे जैसे हजारों यात्री उसका गुणगान करते रहेंगे, उसमें त्याग भी तो असाधारण है। स्वयं ठण्डे रहकर दूसरों के लिए गर्मी प्रदान करना, भूखे रहकर दूसरों की रोटी जुटाने के समान है । सोचता हूँ बुद्धिहीन जड़-पर्वत जब इतना कर सकता है तो क्या बुद्धिमान् बनने वाले

मनुष्य को केवल स्वार्थी ही रहना चाहिए ?

- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर १५

सुनसान के सहचर १५
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पीली मक्खियाँ

आज हम लोग सघन वन में होकर चुपचाप चले जा रहे थे, तो सेव के पेड़ों पर भिनभिनाती फिरने वाली पीली मक्खियां हम लोगों पर टूट पड़ी, बुरी तरह चिपट गईं, छुटाने से भी न छूटती थीं । हाथों से, कपड़ों से उन्हें हटाया भी, भागे भी, पर उन्होंने देर तक पीछा किया। किसी प्रकार गिरते-पड़ते लगभग आधा मील आगे निकल गये, तब उनसे पीछा छूटा । उनके जहरीले डंक जहां लगे थे, सूजन आ गई, दर्द भी होता रहा।

सोचता हूँ इन मक्खियों को इस प्रकार आक्रमण करने की क्यों सूझी, क्या इनको इसमें कुछ मिल गया है, हमें सताकर इनने क्या पाया? लगता है, यह मक्खियाँ सोचती होंगी कि यह वनप्रदेश हमारा है, हमें यहाँ रहना चाहिए। हमारे लिए यह सुरक्षित प्रदेश रहे, कोई दूसरा इधर पदार्पण न करे। उनकी अपनी भावना के विपरीत हमें उधर से गुजरते देखा कि यह हमारे प्रदेश में हस्तक्षेप करते हैं, हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार चलाते हैं। हमारे उधर से गुजरने को सम्भव है, उनने ढीठता समझा हो और अपने बल एवं दर्प का प्रदर्शन करने एवं हस्तक्षेप का मजा चखाने के लिए आक्रमण किया हो ।

यदि ऐसी ही बात है, तो इन मक्खियों की मूर्खता थी । वह वन तो ईश्वर का बनाया हुआ था, कुछ उनने स्वयं थोड़े ही बनाया था । उन्हें तो पेड़ों पर रहकर अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए थी । सारे प्रदेश पर कब्जा करने की उनकी लालसा व्यर्थ थी, क्योंकि वे इतने बड़े प्रदेश का आखिर करते क्या ? फिर उन्हें सोचना चाहिए था कि यह साझे की दुनियाँ है, सभी लोग उसका मिल-जुलकर उपयोग करें, तो ही ठीक है। यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वनश्री की छाया-शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे, तो थोड़ा भी उठा लेने-देने की सहिष्णुता रखती । उनने अनुदारता करके हमें काटा, सताया, अपने डंक खोये, कोई-कोई तो इस झंझट में कुचल भी गयीं, घायल भी हुईं और मर भी गई । वे क्रोध और गर्व न दिखाती, तो क्यों उन्हें व्यर्थ की हानि उठानी पड़ती और क्यों हम सबकी दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण और अधिकार लिप्सा में मुझे कोई बुद्धिमानी दिखाई न दी, यह "पीली मक्खियाँ" सचमुच ही ठीक शब्द था।

पर इन बेचारी मक्खियों को ही क्यों कोसा जाये ? उन्हीं को मूर्ख क्यों कहा जाये ? जबकि आज हम मनुष्य भी इसी रास्ते पर चल रहे हैं। इस सृष्टि में जो विपुल उपभोग सामग्री परमात्मा ने पैदा की है, वह उसके सभी पुत्रों के लिए मिलकर-बाँटकर खाने और लाभ उठाने के लिए है, पर हममें से हर कोई जितना हड़प सके, उतने पर कब्जा जमाने के लिए उतावला हो रहा है। यह भी नहीं सोचा जाता कि शरीर की, कुटुम्ब की आवश्यकता थोड़ी ही है, उतने तक सीमित रहें, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं पर कब्जा जमाकर दूसरों को क्यों कठिनाई में डालें और क्यों मालिकी को व्यर्थ बोझ सिर पर लादें, जबकि उस मालिकी को देर तक अपने कब्जे में रख नहीं सकते।

पीली मक्खियों की तरह मनुष्य भी अधिकार लिप्सा के स्वार्थ और संग्रह में अन्धा हो रहा है। मिल-बाँटकर खाने की नीति उसकी समझ में ही नहीं आती, जो कोई उसे अपने स्वार्थ में बाधक होते दीखता है, उसी पर आँखें दिखाता है, अपनी शक्ति प्रदर्शित करता है और पीली मक्खियों की तरह टूट पड़ता है, इससे उनके इस व्यवहार से कितना कष्ट होता है इसकी चिन्ता किसे है?

पीली मक्खियाँ नन्हें-नन्हें डंक मारकर आधा मील पीछा करके वापिस लौट गईं, पर मनुष्य की अधिकार लिप्सा, स्वार्थपरता और अहंकार से उद्धत होकर किये जाने वाले आक्रमणों की भयंकरता को जब सोचता हूँ तो बेचारी पीली मक्खियों को ही बुरा-भला कहने में जीभ सकुचाने लगती है।

- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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बुधवार, 23 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १४

सुनसान के सहचर १४
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चाँदी के पहाड़

आज सुक्की चट्टी पर धर्मशाला के ऊपर की मंजिल की कोठरी में ठहरे थे, सामने ही बर्फ से ढकी पर्वत की चोटी दिखाई पड़ रही थी बर्फ पिघल कर धीरे-धीरे पानी का रूप धारण कर रही थी, वह झरने के रूप में नीचे की तरफ बह रही थी । कुछ बर्फ पूरी तरह गलने से पहले ही पानी के साथ मिलकर बहन लगती थी, इसलिए दूर से झरना ऐसा लगता था, मानो फेनदार दूध ऊपर बढ़ता चला आ रहा हो । दृश्य बहुत ही शोभायमान था, देखकर आँखें ठण्डी हो रही थी।

जिस कोठरी में अपना ठहरना था, उससे तीसरी कोठी में अन्य यात्री ठहरे हुए थे, उनमें दो बच्चे भी थे । एक लड़की-दूसरा लड़का,दोनों की उम्र ११-१२ वर्ष के लगभग रही होगी, उनके माता-पिता यात्रा पर थे । इन बच्चों को कुलियों की पीठ पर इस प्रान्त में चलने वाली “कन्द्री" सवारी में बिठाकर लाये थे, बच्चे हँसमुख और बातूनी थे ।

दोनों में बहस हो रही थी कि यह सफेद चमकता हुआ पहाड़ किस चीज का है। उसनेे कहीं सुन रखा था कि धातुओं की खानें पहाड़ों में होती है। बच्चों ने संगति मिलाई कि पहाड़ चाँदी का है । लड़की को इसमें सन्देह हुआ, वह यह तो न सोच सकी कि चाँदी का न होगा तो और किस चीज का होगा, पर यह जरूर सोचा कि इतनी चाँदी इस प्रकार खुली पड़ी होती तो कोई न कोई उसे उठा ले जाने की कोशिश जरूर करता । वह लड़के की बात से सहमत नहीं हुई और जिद्दा-जिद्दी चल पड़ी।

मुझे विवाद मनोरंजक लगा, बच्चे भी प्यारे लगे । दोनों को बुलाया और समझाया कि यह पहाड़ तो पत्थर का है; पर ऊँचा होने के कारण बर्फ जम गई है । गर्मी पड़ने पर यह बर्फ पिघल जाती है और सर्दी पड़ने
पर जमने लगती है, वह बर्फ ही चमकने पर चाँदी जैसी लगती है । बच्चों का एक समाधान तो हो गया; पर वे उसी सिलसिले में ढेरों प्रश्न पूछते गये, मैं भी उनके ज्ञान-वृद्धि की दृष्टि से पर्वतीय जानकारी से सम्बन्धित बहुत-सी बातें उन्हें बताता रहा ।
 सोचता हूँ, बचपन में मनुष्य की बुद्धि कितनी अविकसित होती है कि वह बर्फ जैसी मामूली चीज को चाँदी जैसी मूल्यवान् समझता है ।

बड़े आदमी की सूझ-बूझ ऐसी नहीं होती, वह वस्तुस्थिति को गहराई से सोच और समझ सकता है । यदि छोटेपन में ही इतनी समझ आ जाय तो बच्चों को भी यथार्थता को पहचानने में कितनी सुविधा हो । पर मेरा यह सोचना भी गलत ही है, क्योंकि बड़े होने पर भी मनुष्य समझदार कहाँ हो पाता है । जैसे ये दोनों बच्चे बर्फ को चाँदी समझ रहे तथा, उसी प्रकार चाँदी-ताँबे के टुकड़ों को इन्द्रिय छेदों पर मचने वाली खुजली को, नगण्य अहंकार को, तुच्छ शरीर को बड़ी आयु का मनुष्य भी न जाने कितना अधिक महत्त्व दे डालता है और उसकी ओर इतना आकर्षित होता है कि जीवन लक्ष्य को भुलाकर भविष्य को अन्धकारमय
बना लेने की परवाह नहीं करता ।
सांसारिक क्षणिक और सारहीन आकर्षणों में हमारा मन उनसे भी अधिक तल्लीन हो जाता है जितना कि छोटे बच्चों का मिट्टी के खिलौने के साथ खेलने में, कागज की नाव बहाने में लगता है । पढ़ना-लिखना, खाना-पीना छोड़कर पतंग उड़ाने में निमग्न बालक को अभिभावक उसकी अदूरदर्शिता पर धमकाते हैं, पर हम बड़ी आयु वालों को कौन धमकाए? जो आत्म स्वार्थ को भुलाकर विषय विकारों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली बने हुए हैं बर्फ चाँदी नहीं है, यह बात मानने में इन बच्चों का समाधान हो गया था, पर तृष्णा और वासना जीवन लक्ष्य नहीं है, हमारी इस भ्रांति का कौन समाधान करे?
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सोमवार, 21 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १३

सुनसान के सहचर १३
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इस कथा का स्पष्ट और व्यक्तिगत अनुभव आज उस संकरे विकट रास्ते को पार करते हुए किया । हम लोग कई पथिक साथ थे । वैसे खूब हँसते-बोलते चलते थे; पर जहाँ वह सँकरी पगडण्डी आई कि सभी चुप
हो गए। बातचीत के सभी विषय समाप्त थे, न किसी को घर की याद आ रही थी और न किसी अन्य विषय पर ध्यान था। चित्त पूर्ण एकाग्र था और केवल यही एक प्रश्न पूरे मनोयोग के साथ चल रहा था कि अगला पैर ठीक जगह पर पड़े । एक हाथ से हम लोग पहाड़ को पकड़ते चलते थे, यद्यपि उसमें पकड़ने जैसी कोई चीज नहीं थी, तो भी इस आशा से कि यदि शरीर की झोंक गंगा की तरफ झुकी तो संतुलन को ठीक रखने में पहाड़ को पकड़-पकड़ कर चलने का उपक्रम कुछ न कुछ सहायक होगा । इन डेढ़-दो मील की यह यात्रा बड़ी कठिनाई के साथ पूरी की । दिल हर घड़ी धड़कता रहा । जीवन को बचाने के लिए कितनी सावधानी की आवश्यकता है-यह पाठ क्रियात्मक रूप से आज ही पढ़ा। यह विकट यात्रा पूरी हो गई, पर अब भी कई विचार उसके स्मरण के साथ-साथ उठ रहे हैं । सोचता हूँ यदि हम सदा मृत्यु को निकट ही देखते रहें, तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाले मृग तृष्णाओं से बच सकते हैं । जीवन लक्ष्य की यात्रा भी हमारी आज की यात्रा के समान ही है, जिसमें हर कदम साध-साध कर रखा जाना जरूरी है । यदि एक भी कदम गलत या गफलत भरा उठ जाय, तो मानव जीवन के महान् लक्ष्य से पतित होकर हम एक अथाह गर्त में गिर सकते हैं । जीवन से हमें प्यार है, तो प्यार को चरितार्थ करने का एक ही तरीका है कि सही तरीके से अपने को चलाते हुए इस सँकरी पगडण्डी से पार ले चलें, जहाँ से शान्तिपूर्ण यात्रा पर चल पड़े । मनुष्य जीवन ऐसा ही उत्तरदायित्वपूर्ण है, जैसा उस गंगा तट की खड़ी पगडण्डी पर चलने वालों का । उसे ठीक तरह निवाह देने पर ही सन्तोष की साँस ले सके और यह आशा कर सके कि उस अभीष्ट तीर्थ के दर्शन कर सकेंगे । कर्तव्य पालन की पगडण्डी ऐसी सँकरी है; उसमें लापरवाही बरतने पर जीवन लक्ष्य के प्राप्त होने की आशा कौन कर सकता है? धर्म के पहाड़ की दीवार की तरह पकड़कर चलने पर हम अपना यह सन्तुलन बनाये रह सकते हैं,
जिससे खतरे की ओर झुक पड़ने का भय कम हो जाय । आड़े वक्त में इस दीवार का सहारा ही हमारे लिए बहुत कुछ है। धर्म की आस्था भी लक्ष्य की मंजिल को ठीक तरह पार कराने में बहुत कुछ सहायक मानी जायेगी।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १२

सुनसान के सहचर १२
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               हिमालय में प्रवेश

      मृत्यु सी भयानक सँकरी पगडण्डी
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आज बहुत दूर तक विकट रास्ते से चलना पड़ा। नीचे गंगा बह रही थी, ऊपर पहाड़ खड़ा था । पहाड़ के निचले भाग में होकर चलने की संकरी सी पगडण्डी थी । उसकी चौड़ाई मुश्किल से तीन फुट रही होगी। उसी पर होकर चलना था । पैर भी इधर-उधर हो जाय तो नीचे गरजती हुई गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने में कुछ देर न थी । जरा बचकर चले, तो दूसरी ओर सैकड़ों फुट ऊँचा पर्वत सीधा तना खड़ा था। यह एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था । सँकरी सी पगडण्डी पर सँभाल-सँभाल कर एक-एक कदम रखना पड़ता था; क्योंकि जीवन और मृत्यु के बीच एक डेढ़ फुट का अन्तर था ।
मृत्यु का डर कैसा होता है उसका अनुभव जीवन में पहली बार हुआ। एक पौराणिक कथा सुनी थी कि राजा जनक ने शुकदेव जी को अपने कर्मयोगी होने की स्थिति समझाने के लिए तेल का भरा कटोरा हाथ मे देकर नगर के चारों ओर भ्रमण करते हुए वापिस आने को कहा और साथ ही कह दिया था कि यदि एक बूँद भी तेल फैला तो वहीं गरदन काट दी जायेगी । शुकदेव जी मृत्यु के डर से कटोरे से तेल न फैलने की सावधानी रखते हुए चले । सारा भ्रमण कर लिया पर उन्हें तेल के अतिरिक्त और कुछ न दिखा । जनक ने तब उनसे कहा, कि जिस प्रकार मृत्यु के भय ने तेल की बूँद भी न फैलने दी और सारा ध्यान कटोरे पर ही रखा, उसी प्रकार में भी मृत्यु भय को सदा ध्यान में रखता हूँ, जिससे किसी कर्तव्य कर्म में न तो प्रमाद होता और न मन व्यर्थ की बातों में
भटक कर चंचल होता है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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गुरुवार, 17 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर ११

सुनसान के सहचर ११
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आगे और भी प्रचण्ड तप करने का निश्चय किया है और भावीजीवन को तप-साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है । हम तप का महत्त्व समझ चुके हैं कि संसार के बड़े से बड़े पराक्रम और पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में तप साधना का मूल्य अत्यधिक है। जौहरी काँच को फेंक, रत्न की साज-सम्भाल करता है । हमने भी भौतिक सुखों को लात मार कर यदि तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है तो उससे मोहग्रस्त परिजन भले ही खिन्न होते हैं वस्तुतः उस निश्चय में दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता ही ओत-प्रोत है।

राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक दोनों मिलकर इन दिनों जो रचना कर रहे है, वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली ही है । ऐसे हथियार तो बन रहे हैं, जो विपक्षी देशों को तहस-नहस करके अपनी विजय पताका गर्वपूर्वक फहरा सकें, पर ऐसे अस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है, जो लगाई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथ को कुंठित कर सके और जिनके दिलों व दिमागों में नृशंसता की भट्टी जलती है, उनमें शान्ति एवं सौभाग्य की सरसता प्रवाहित कर सके । ऐसे शान्ति शस्त्रों का निर्माण राजधानियों में, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है । प्राचीनकाल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है, तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान् प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं । वर्तमान काल में अनेक महान् आत्माएँ इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हुई है।संसार को, मानव जाति को सुखी और सुन्नत बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं । उद्योग-धन्धे, कल-कारखाने, रेल, तार, सड़क, बाँध, स्कूल, अस्पतालों आदि का बहुत कुछ निर्माण कार्य चल रहा है। इससे गरीबी और बीमारी, अशिक्षा और असभ्यता का बहुत कुछ समाधान होने की आशा की जाती है; पर मानव अन्त:करणों में प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्य का, आस्तिकता और धार्मिकता का, सेवा और संयम का निर्झर प्रवाहित किए बिना, विश्व शान्ति की दिशामें कोई कार्य न हो सकेगा । जब तक सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले गाँधी, दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, नारद, व्यास जैसे आत्मबल सम्पन्न मार्गदर्शक न हों, तब तक लोक मानस को ऊँचा उठाने के प्रयत्न सफल न होगे । लोक मानस को ऊँचा उठाए, बिना पवित्र आदर्शवादी भावनाएँ 1. उत्पन्न किये बिना, लोक की गतिविधियाँ ईर्ष्या-द्वेष, शोषण, अपहरण, आलस्य, प्रमाद, व्यभिचार, पाप से रहित न होंगी, तब तक क्लेश और कलह से, रोग और दारिद्र से कदापि छुटकारा न मिलेगा।

लोक मानस को पवित्र, सात्विक एवं मानवता के अनुरूप, नैतिकता से परिपूर्ण बनाने के लिए जिन सूक्ष्म आध्यात्मिक तरंगों को प्रवाहित किया जाना आवश्यक है, वे उच्च कोटि की आत्माओं द्वारा विशेष तप साधन से ही उत्पन्न होंगी । मानवता की, धर्म और संस्कृति की यह सबसे बड़ी सेवा है। आज इन प्रयत्नों की तुरन्त आवश्यकता 1. अनुभव की जाती है, क्योंकि जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं, असुरता का पलड़ा अधिक भारी होता जाता है, देरी करने में अति और अनिष्ट की अधिक सम्भावना हो सकती है ।

समय की इसी पुकार ने हमें वर्तमान कदम उठाने को बाध्य किया। यों जबसे यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ, ६ घण्टे की नियमित गायत्री उपासना का क्रम चलता रहा है; पर बड़े उद्देश्यों के लिए जिस सघन साधना और प्रचंड तपोबल की आवश्यकता होती है, उसके लिए यह आवश्यक हो गया कि १ वर्ष ऋषियों की तपोभूमि हिमालय में रहा और प्रयोजनीय तप सफल किया जाय । इस तप साधना का कोई वैयक्तिक उद्देश्य नहीं । स्वर्ग और मुक्ति की न कभी कामना रही और न रहेगी। अनेक बार जल लेकर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का संकल्प लिया है, फिर पलायनवादी कल्पनाएँ क्यों करें। विश्व हित ही अपना हित है। इस लक्ष्य को लेकर तप की अधिक उग्र अग्नि में अपने को तपाने का वर्तमान कदम उठाया है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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बुधवार, 16 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १०

सुनसान के सहचर १०
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इस प्रकार के दस-बीस नहीं हजारों-लाखों प्रसंग भारतीय इतिहास में मौजूद हैं, जिनने तप शक्ति के लाभों से लाभान्वित होकर साधारण नर तनधारी जनों ने विश्व को चमत्कृत कर देने वाले स्व-पर कल्याण के महान् आयोजन पूर्ण करने वाले उदाहरण उपस्थित किए हैं । इस युग में महात्मा गांधी, संत विनोबा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास, सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गए हैं, वे साधारण भौतिक पुरुषार्थ द्वारा पूरे किए जाने पर सम्भव न थे । हमने भी अपने जीवन के आरम्भ से ही यह तपश्चर्या का कार्य अपनाया है । २४ महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा उपलब्ध शक्ति का उपयोग हमने लोक-कल्याण में किया है । फलस्वरूप अगणित व्यक्ति हमारी सहायता से भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च शिक्षा तक पहुँचे हैं । अनेकों को भारी व्यथा व्याधियों से, चिन्ता परेशानियों से छुटकारा मिला है । साथ ही धर्म जागृति एवं नैतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशाजनक कार्य हुआ है । २४ लक्ष गायत्री उपासकों का निर्माण एवं २४ हजार कुण्डों के यज्ञों का संकल्प इतना महान् था कि सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते थे; किन्तु यह सब कार्य कुछ ही दिनों में बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो गए । गायत्री तपोभूमि
का-गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं, जिनके पीछे साधना-तपश्चर्या का प्रकाश झाँक रहा है ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर ९

सुनसान के सहचर ९
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देवताओं और ऋषियों की भाँति ही असुर भी यह भली-भाँति जानते थे कि तप में ही शक्ति की वास्तविकता केन्द्रित है । उनने भी प्रचण्ड तप किया और वरदान प्राप्त किए, जो सुर पक्ष के तपस्वी भी प्राप्त न कर सके थे। रावण ने अनेकों बार सिर का सौदा करने वाली तप साधना की और शंकर जी को इंगित करके अजेय शक्तियों का भण्डार प्राप्त किया । कुम्भकरण ने तप द्वारा ही छः-छः महीने सोने-जागने का अद्भुत वरदान पाया था । मेघनाथ, अहिरावण और मारीचि को विभिन्न मायावी शक्तियाँ भी उन्हें तप द्वारा मिली थीं । भस्मासुर ने सिर पर हाथ रखने से किसी को भी जला देने की शक्ति तप करके ही प्राप्त की थी।
हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, सहस्रबाहु, बालि आदि असुरों के पराक्रम का भी मूल आधार तप ही था । विश्वामित्र और राम के लिए सिर दर्द बनी हुई ताड़का, श्रीकृष्ण चन्द्र के प्राण लेने का संकल्प करने वाली पूतना, हनुमान को निगल जाने में समर्थ सुरसा, सीता को नाना प्रकार के कौतूहल दिखाने वाली त्रिजटा आदि अनेकों असुर नारियाँ भी ऐसी थीं, जिनने आध्यात्मिक क्षेत्र में अच्छा खासा परिचय दिया।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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शनिवार, 29 अगस्त 2020

शाप और वरदान

सुनसान के सहचर ८
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शाप और वरदानों के आश्चर्यजनक परिणामों की चर्चा से हमारे प्राचीन इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं। श्रवण कुमार को तीर मारने के दण्ड स्वरूप उसके पिता ने राजा दशरथ को शाप दिया था कि वह भी पुत्र शोक में इसी प्रकार विलख-विलख कर मरेगा । तपस्वी के मुख से निकला हुआ वचन असत्य नहीं हो सकता था, दशरथ को उसी प्रकार मरना पड़ा था । गौतम ऋषि के शाप से इन्द्र और चन्द्रमा जैसे देवताओंकी दुर्गति हुई । राजा सगर के दस हजार पुत्रों को कपिल के क्रोध करने के फलस्वरूप जलकर भस्म होना पड़ा । प्रसन्न होने पर देवताओं की भाँति तपस्वी ऋषि भी वरदान प्रदान करते थे और दुःख दारिद्र से पीड़ित अनेकों व्यक्ति सुख-शान्ति के अवसर प्राप्त करते थे ।

पुरुष ही नहीं, तप साधना के क्षेत्र में भारत की महिलाएँ भी पीछे न थीं। पार्वती ने प्रचंण्ड तप करके मदन-दहन करने वाले समाधिस्थ शंकर को विवाह करने के लिए विवश किया। अनुसूया ने अपनी आत्म शक्ति से ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नहे-नहे बालकों के रूप में परिणत कर दिया । सुकन्या ने अपने वृद्ध पति को युवा बनाया। सावित्री ने यम से संघर्ष करके अपने मृतक पति के प्राण लौटाये । कुन्ती ने सूर्य तप करके कुमारी अवस्था में सूर्य के समान तेजस्वी कर्ण को जन्म दिया। क्रुद्ध गान्धारी ने कृष्ण को शाप दिया कि जिस प्रकार मेरे कुल का नाश किया है, वैसे ही तेरा कुल इसी प्रकार परस्पर संघर्ष में नष्ट होगा । उसके वचन मिथ्या नहीं गये । सारे यादव आपस में ही लड़कर नष्ट हो गए। दमयन्ती के शाप से व्याध को जीवित ही जल जाना पड़ा । इड़ा ने अपने पिता मनु का यज्ञ सम्पन्न कराया और उनके अभीष्ट प्रयोजन को पूरा करने में सहायता की । इन आश्चर्यजनक कार्यों के पीछे उनकी तप शक्ति की महिमा प्रत्यक्ष है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

उत्तम सन्तान

सुनसान के सहचर ७
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उत्तम सन्तान प्राप्त करने के अभिलाषी भी तपस्वियों के अनुग्रह से सौभाग्यान्वित हुए हैं । श्रृंगी ऋषि द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तीन विवाह कर लेने पर भी संतान न होने पर राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए । राजा दिलीप ने चिरकाल तक अपनी रानी समेत वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चराकर जो अनुग्रह प्राप्त किया, उसके फलस्वरूप ही डूबता वंश चला, पुत्र प्राप्त हुआ । पाण्डु जब सन्तानोत्पादन में असमर्थ रहे तो व्यास जी के अनुग्रह से प्रतापी पाँच पाण्डव उत्पन्न हुए। श्री जवाहर लाल नेहरू के बारे में कहा गया है कि उनके पिता श्री मोतीलाल नेहरू जब चिरकाल तक सन्तान से वंचित रहे तो इनकी चिन्ता दूर करने के लिए हिमालय निवासी एक तपस्वी ने अपना शरीर त्यागा और उनका मनोरथ पूर्ण किया । अनेकों ऋषि कुमार अपने माता-पिता का प्रचण्ड अध्यात्म बल जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते थे और वे बालकपन में ही वह कार्य कर लेते थे, जो बड़ों के लिए कठिन होते हैं। लोमश ऋषि के पुत्र शृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित द्वारा अपने पिता के गले में सर्प डाला जाता देखकर क्रोध से शाप दिया कि सात दिन में कुकृत्य करने वाले को सर्प काट लेगा । परीक्षित की सुरक्षा के भारी प्रयत्न किये जाने पर भी सर्प से काटे जाने का ऋषि कुमार का शाप सत्य होकर ही

रहा।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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वज्र

सुनसान के सहचर ५
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शुकदेव जी जन्म से साधना रत हो गए। उन्होंने मानव जीवन का एकमात्र सदुपयोग इसी में समझा कि इसका उपयोग आध्यात्मिक प्रयोजनों में करके नर-तन जैसे सुरदुर्लभ सौभाग्य का सदुपयोग किया जाये । वे चकाचौंध पैदा करने वाले वासना एवं तृष्णा जन्य प्रलोभनों को दूर से नमस्कार करके ब्रह्मज्ञान की, ब्रह्मतत्त्व की उपलब्धि में संलग्न हो गये।

तपस्वी ध्रुव ने खोया कुछ नहीं, यदि वह साधारण राजकुमार की तरह मौज-शौक का जीवन यापन करता, तो समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र बिन्दु ध्रुवतारा बनने और अपनी कीर्ति को अमर बनाने का लाभ उसे प्राप्त न हो सका होता। उस जीवन में भी उसे जितना विशाल राजपाट मिला, उतना किसी की अधिक से अधिक कृपा प्राप्त होने पर भी उसे उपलब्ध न हुआ होता । पृथ्वी पर बिखरे हुए अन्न कणों को बीनकर अपना निर्वाह करने वाले कणाद ऋषि,वट वृक्ष के दूध पर गुजारा करने वाले वाल्मीकि ऋषि भौतिक विलासिता से वंचित रहे, पर इसके बदले में जो कुछ पाया, वह बड़ी से बड़ी सम्पदा से कम न था ।

भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने अपने काल में लोक की दुर्गति को मिटाने के लिए तपस्या को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग किया। व्यापक हिंसा और असुरता के वातावरण को दया अहिंसा के रूप में परिवर्तित कर दिया। दुष्टता को हटाने के लिए यों अस्त्र-शस्त्रों का-दण्ड-दमन का मार्ग सरल समझा जाता है; पर वह भी सेना एवं आयुधों की सहायता से उतना नहीं हो सकता, जितना तपोबल से। अत्याचारी शासकों का पृथ्वी से उन्मूलन करने के लिए परशुराम जी का फरसा अभूतपूर्व अस्त्र सिद्ध हुआ । उसी से उन्होंने सेना के बड़े-बड़े सामन्तों से सुसज्जित राजाओं को परास्त कर २१ बार पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया । अगस्त का कोप बेचारा समुद्र क्या सहन करता? उन्होंने तीन चुल्लुओं में सारे समुद्र को उदरस्थ कर लिया । देवता जब किसी प्रकार असुरों को परास्त न कर सके, लगातार हारते ही गये तो तपस्वी दधीचि की तेजस्वी हड्डियों का वज्र प्राप्त कर इन्द्र ने देवताओं की नाव को पार लगाया ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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तितीक्षा

सुनसान के सहचर ६
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प्राचीनकाल में विद्या का अधिकारी वही माना जाता था, जिसमें तितीक्षा एवं कष्ट सहिष्णुता की क्षमता होती थी, ऐसे ही लोगों के हाथ में पहुँचकर विद्या उसका व समस्त संसार का कल्याण करती थी । आज विलासी और लोभी प्रवृत्ति के लोगों को ही विद्या सुलभ हो गई । फलस्वरूप वे उसका दुरुपयोग भी खूब कर रहे हैं । हम देखते हैं कि अशिक्षितों की, अपेक्षा सुशिक्षित ही मानवता से अधिक दूर हैं और वे विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करके संसार की सुख-शान्ति के लिए अभिशाप बने हुए हैं। प्राचीनकाल में प्रत्येक अभिभावक अपने बालकों को तपस्वी मनोवृत्ति का बनाने के लिए उन्हें गुरुकुल में भेजता था और गुरुकुल के संचालक बहुत-बहुत समय तक बालकों में कष्ट सहिष्णुता जागृत करते थे और जो इस प्रारम्भिक परीक्षा में सफल होते थे, उन्हें ही परीक्षाधिकारी मानकर विद्या-दान करते थे । उद्दालक, आरुणि आदि अगणित छात्रों को कठोर परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था । इसका

वृत्तान्त सभी को मालूम है । ब्रह्मचर्य के तप का प्रधान अंग माना गया है । बजरंगी हनुमान, बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं । शंकराचार्य, दयानन्द प्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य व्रत के आधार पर ही संसार की महान् सेवा कर सके । प्राचीनकाल में ऐसे अनेकों गृहस्थ होते थे, जो विवाह होने पर भी अपनी पत्नी के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते थे ।

आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तपबल से न केवल अपना आत्म-कल्याण करते थे वरन् अपनी थोड़ी-सी शक्ति शिष्यों को देकर उनको भी महान् पुरुष बना देते थे । विश्वामित्र के आश्रम में रहकर रामचन्द्रजी का, संदीपन ऋषि के गुरुकुल में पढ़कर कृष्णचन्द्र जी का ऐसा निर्माण हुआ कि भगवान ही कहलाये । समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर एक मामूली सा मराठा बालक छत्रपति शिवाजी बना । रामकृष्ण परमहंस से शक्ति कण पाकर नास्तिक नरेन्द्र संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानंद कहलाया । प्राण रक्षा के लिए मारे मारे फिरते हुए इंद्र को महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियां देकर उसे निर्भय बनाया । नारद का जरा सा उपदेश पाकर डाकू बाल्मीकि महर्षि बन गया ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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तप साधना

सुनसान के सहचर ४
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नई सृष्टि रच डालने वाले विश्वामित्र की-रघुवंशी राजाओं की अनेक पीढ़ियों तक मार्गदर्शन करने वाले वशिष्ठ की क्षमता तथा साधना इसी में ही अन्तर्निहित थी । एक बार राजा विश्वामित्र वन में अपनी सेना को लेकर पहुँचे तो वशिष्ठ जी ने कुछ सामान न होने पर भी सारी सेना का समुचित आतिथ्य कर दिखाया तो विश्वामित्र दंग रह गये। किसी प्रसंग को लेकर जब निहत्थे वशिष्ठ और विशाल सेना सम्पन्न विश्वामित्र में युद्ध ठन गया, तो तपस्वी वशिष्ठ के सामने राजा विश्वामित्र को परास्त ही होना पड़ा। उन्होंने “धिक् बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्म तेजो बलम्" की घोषणा करते हुए राजपाट छोड़ दिया और सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति की तपश्चर्या के लिए शेष जीवन समर्पित कर दिया।

अपने नरकगामी पूर्व पुरुषों का उद्धार तथा प्यासी पृथ्वी को जलपूर्ण करके जन-समाज का कल्याण करने के लिए गंगावतरण की आवश्यकता थी। इस महान् उद्देश्य की पूर्ति लौकिक पुरुषार्थ से नहीं वरन् तप शक्ति से ही सम्भव थी। भगीरथ कठोर तप करने के लिए वन को गए और अपनी साधना से प्रभावित कर गंगाजी को भूलोक में लाने एवं शिवजी को अपनी जटाओं में धारण करने के लिए तैयार किया, यह कार्य साधारण प्रक्रिया से सम्पन्न न होता, तप ने ही उन्हें सम्भव बनाया।

च्यवन ऋषि इतना कठोर दीर्घकालीन तप कर रहे थे कि उनके सारे

शरीर पर दीमक ने अपना घर बना लिया था और उनका शरीर एक मिट्टी का टीला जैसा बन गया था । राजकुमारी सुकन्या को छेदों में दो चमकदार चीजें दीखी और उनमें काँटे चुभो दिए । यह चमकदार चीजें और कुछ नहीं च्यवन ऋषि की आँखें थी । च्यवन ऋषि को इतनी कठोर तपस्या इसलिए करनी पड़ी कि वे अपनी अन्तरात्मा में सन्निहित शक्ति केन्द्रो को जागृत करके परमात्मा के अक्षय शक्ति भण्डार में भागीदारी मिलने की अपनी योग्यता सिद्ध कर सकें ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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तपश्चर्या

सुनसान के सहचर ३
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संसार में जब कभी कोई महान् कार्य सम्पन्न हुए हैं, तो उनके पीछे तपश्चर्या की शक्ति अवश्य रही है । हमारा देश देवताओं और नर-रत्नों का देश रहा है । यह भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है। ज्ञान, पराक्रम और सम्पदा की दृष्टि से महाराष्ट्र सदा से विश्व का मुकुटमणि रहा है । उन्नति के इस उच्च शिखर पर पहुँचने का कारण यहाँ के निवासियों की प्रचण्ड तपनिष्ठा ही रही है । आलसी और विलासी, स्वार्थी और लोभी लोगों को यहाँ सदा घृणित एवं निकृष्ट माना जाता रहा है। तप शक्ति की महत्ता को यहाँ के निवासियों ने पहचाना, तत्त्वत: कार्य किया और उसके उपार्जन में पूरी तत्परता दिखाई, तभी यह सम्भव हो सका कि भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं सम्पदाओं के स्वामी होने का इतना ऊँचा गौरव प्राप्त हुआ ।

पिछले इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत का बहुमुखी विकास तपश्चर्या पर आधारित एवं अवलम्बित होता है । सृष्टि के उत्पन्न कीर्ति प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के पूर्व, विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पुष्प पर अवस्थित होकर, सौ वर्षों तक गायत्री उपासना के आधार पर तप किया, तभी उन्हें सृष्टि निर्माण एवं ज्ञान-विज्ञान के उत्पादन की शक्ति उपलब्ध हुई । मानव धर्म के आविष्कर्ता भगवान मनु ने अपनी रानी शतरूपा के साथ प्रचण्ड तप करने के पश्चात् ही अपना महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वपूर्ण किया था, भगवान् शंकर स्वयं तप रूप हैं । उनका कार्यक्रम सदा से तप साधना ही रहा। शेषजी तप के बल पर ही इस पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किये हैं । सप्त ऋषियों ने इसी मार्ग पर दीर्घकाल तक चलते रहकर वह सिद्धि प्राप्त की, जिससे सदा उनका नाम अजर-अमर रहेगा । देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य अपने-अपने शिष्यों के कल्याण, मार्गदर्शन और सफलता की साधना अपनी तप शक्ति के आधार पर ही करते रहे हैं ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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तप

सुनसान के सहचर - २
__________________
प्रकृति तपती है इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल रही है। जीव तपता है, उसी से उसके अन्तराल में छिपे हुए पुरुषार्थ पराक्रम, साहस, उल्लास, ज्ञान, विज्ञान,प्रकृति रत्नाकर श्रृंखला प्रस्फुटित होती है ।माता अपने अण्ड एवं भ्रूण को अपनी उदरस्थ ऊष्मा से पकाकर शिशु का प्रसव करती है । जिन जीवों ने मूर्छित स्थिति से ऊँचे उठने की, खाने-सोने से कुछ अधिक करने की आकांक्षा की है, उन्हें तप करना पड़ा है। संसार में अनेकों पुरुषार्थी-पराक्रमी इतिहास के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ने वाले महापुरुष जो हुए हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में अपने-अपने ढंग का तप करना पड़ा है । कृषक, विद्यार्थी, श्रमिक वैज्ञानिक, शासक, विद्वान्, उद्योग, कारीगर आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य-भूमिकाओं का सम्पादन करने वाले व्यक्ति वे ही बन सके हैं, जिन्होंने कठोर श्रम, अध्यवसाय एवं तपश्चर्या की नीति को अपनाया है। यदि इन लोगों ने आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, शिथिलता एवं विलासिता की नीति अपनाई होती तो वे कदापि उस स्थान पर न पहुँच पाते, जो उन्होंने कष्ट-सहिष्णु एवं पुरुषार्थ बनकर उपलब्ध किया है । पुरुषार्थों में आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूल्य और महत्व अधिक है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सामान्य सम्पत्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति सम्पदा की महत्ता अधिक है । धन, बुद्धि, बल आदि के आधार पर अनेक व्यक्ति, उन्नतिशील, सुखी एवं सम्मानित बनते हैं; पर उन सबसे अनेक गुना महत्त्व वे लोग प्राप्त करते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक बल का संग्रह किया है। पीतल और सोने में, काँच और रत्न में जो अन्तर है, वही अन्तर सांसारिक सम्पत्ति एवं आध्यात्मिक सम्पदा के बीच में भी है। इस संसार में धनी, सेठ, अमीर, उमराव, गुणी, विद्वान् कलावन्त बहुत हैं, पर उनकी तुलना उन महान् आत्माओं के साथ नहीं हो सकती, जिनने

अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा अपना ही नहीं संसार का हित साधन

किया। प्राचीनकाल में भी सभी समझदार लोग अपने बच्चों को

कष्ट-सहिष्णु अध्यवसायी, तितीक्षाशील एवं तपसी बनाने के लिए छोटी

आयु में ही गुरुकुलों में भर्ती करते थे; ताकि आगे चलकर वे कठोर जीवनयापन करने के अभ्यस्त होकर महापुरुषों की महानता के अधिकारी बन सकें ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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गुरुवार, 27 अगस्त 2020

हमारा अज्ञातवास

सुनसान के सहचर

हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य

तप की शक्ति अपार है । जो कुछ अधिक से अधिक शक्ति सम्पन्न तत्त्व इस विश्व में है, उसका मूल “ताप” में ही सन्निहित है । सूर्य तपता है, इसलिए ही वह समस्त विश्व को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भण्डार का अधिपति है । ग्रीष्म की ऊष्मा से जब वायु मण्डल भली प्रकार तप लेता है तो मंगलमयी वर्षा होती है । सोना तपता है तो खरा, तेजस्वी और मूल्यवान बनाता है । जितनी भी धातुएँ हैं, वे सभी खान से निकलते समय दूषित, मिश्रित व दुर्बल होती हैं, पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया, पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान् बन जाती हैं । कच्ची मिट्टी के बने हुए कमजोर खिलौने और बर्तन जरा से आयात से टूट सकते हैं । तपाये और पकाये जाने पर मजबूत एवं रक्त वर्ण हो जाते हैं, कच्ची ईंट भट्टे में पकने पर पत्थर जैसी कड़ी हो जाती है । मामूली से कच्चे कंकड़ पकने पर चूना बनते हैं और उनके द्वारा बने हुए विशाल प्रसाद दीर्घकाल तक बने खड़े रहते हैं

मामूली-सा अभ्रक जब सौ बार अग्नि में तपाया जाता है तो चन्द्रोदय रस बनता है, अनेकों बार अग्नि संस्कार होने से ही धातुओं की मूल्यवान् भस्म रसायन बन जाती है और उनसे अशक्त एवं कष्ट साध्य रोगों से ग्रस्त रोगी पुनर्जीवन प्राप्त करते हैं । साधारण अन्न और दाल-सांग कच्चे रूप में न तो सुपाच्य होते हैं और न स्वादिष्ट । वे ही अग्नि संस्कार से पकाये जाने पर सुरुचिपूर्ण व्यंजनों का रूप धारण करते हैं । धोबी की भट्टी में चढ़ने पर मैले-कुचैले कपड़े निर्मल एवं स्वच्छ बन जाते हैं । पेट की जठराग्नि द्वारा पकाया हुआ अन्न भी रक्त, अस्थि का रूप धारण कर हमारे शरीर का भाग बनता है । यदि वह अग्नि संस्कार की-तप की प्रक्रिया बन्द हो जाय तो निश्चित रूप से विकास का सारा काम बन्द हो जायेगा।

प्रकृति तपती है, इसीलिए सृष्टि की सारी संचालन व्यवस्था चल



बुधवार, 26 अगस्त 2020

सुनसान के सहचर

विषय सूची

१-हमारा अज्ञातवास और तप साधना का उद्देश्य

२-हिमालय में प्रवेश

३-प्रकृति का रुद्राभिषेक

४-सुनसान की झोपड़ी

५-सुनसान के सहचर

६-विश्व समाज की सदस्यता

७-हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
 ८-हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

***
पुस्तक परिचय

इसे एक सौभाग्य, संयोग ही कहना चाहिए कि जीवन को आरम्भ से अन्त तक एक समर्थ सिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया । उस मार्गदर्शक ने जो भी आदेश दिए वे ऐसे थे जिनमें इस अकिंचन जीवन की सफलता के साथ-साथ लोक-मंगल का महान् प्रयोजन भी जुड़ा है । १५ वर्ष की आयु से उनकी अप्रत्याशित अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई । इधर से भी यह प्रयल हुए कि महान् गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाए। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने आत्म समर्पण ही हो गया । कठपुतली की तरह अपनी समस्त शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएँ उन्हीं के चरणों पर समर्पित हो गयीं। जो आदेश हुआ उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य कर कार्यान्वित किया गया । अपना यही क्रम अब तक चलता रहा है । अपने अद्यावधि क्रिया-कलापों को एक

कठपुतली की उछल-कूद कहा जाय तो उचित ही विशेषण होगा।

पन्द्रह वर्ष समाप्त होने और सोलहवें में प्रवेश करते समय यह दिव्य साक्षात्कार मिलन हुआ । उसे ही विलय कहा जा सकता है । आरम्भ में २४ वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ इन दो पदार्थों के आधार पर अखण्ड दीपक के समीप २४ गायत्री महापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई । सो ठीक प्रकार सम्पन्न हुए। उसके बाद दस वर्ष तक धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिए प्रचार,संगठन,लेखन,भाषण एवं रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। ४ हजार शाखाओं वाला गायत्री परिवार बनकर खड़ा हो गया। उन वर्षों में एक ऐसा संघ बनकर खड़ा हो गया, जिसे नवनिर्माण के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके । चौबीस वर्ष की पुरश्चरण साधना का व्यय दस वर्ष में हो गया। अधिक ऊँची जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी । सो इसके लिए फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिए जहाँ अभी भी आत्म चेतना का शक्ति प्रवाह प्रवाहित होता है । अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही हो सकता था।
सन् ५८ में एक वर्ष के लिए हिमालय तपश्चर्या के लिए प्रयाण हुआ। गंगोत्री में भगीरथ के तप-स्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तप-स्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हुई । भगीरथ की तपस्या गंगा-अवतरण को और परशुराम की तपस्या दिग्विजय में परशु प्रस्तुत कर सकी थी । नव निर्माण के महान् प्रयोजन में अपनी तपस्या के कुछ श्रद्धा बिन्दु काम आ सके तो उसे भी साधना की सफलता ही कहा जा सकेगा।

उस एक वर्षीय तप साधना के लिए गंगोत्री जाते समय मार्ग में अनेक विचार उठते रहे । जहाँ-जहाँ रहना हुआ, वहाँ-वहाँ भी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं । लिखने का व्यसन रहने से उन प्रिय अनुभूतियों को लिखा भी जाता रहा। उनमें से कुछ ऐसी थीं,जिनका रसास्वादन दूसरे करें तो लाभ उठाएँ । उन्हें अखण्ड-ज्योति में छपने भेज दिया गया,छप भी गयीं । अनेक ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया सो नहीं छपाई गयीं । 

उन दिनों “साधक की डायरी के पृष्ठ” “सुनसान के सहचर” आदि शीर्षकों से जो लेख “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका में छपे,वे लोगों को बहुत रुचे । बात पुरानी हो गई पर अभी लोग उन्हें पढ़ने के लिए उत्सुक थे। सो इन लेखों को पुस्तकाकार में प्रकाशित कर देना उचित समझा गया। अस्तु यह पुस्तक प्रस्तुत है । घटनाक्रम अवश्य पुराना हो गया, पर उन दिनों जो विचार अनुभूतियाँ उठतीं,वे शाश्वत हैं । उनकी उपयोगिता में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ अन्तर नहीं आया है आशा की जानी चाहिए भावनाशील अन्तःकरणों को वे अनुभूतियाँ अभी भी हमारी ही तरह स्पंदित कर सकेंगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।
एक विशेष लेख इसी संकलन में और है वह है-" हिमालय के हृदय का। विवेचन-विश्लेषण ।" बद्रीनारायण से लेकर गंगोत्री के बीच का लगभग ४०० मील परिधि का वह स्थान है, जो प्रायः सभी देवताओं और ऋषियों का तप केन्द्र रहा है । इसे ही धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है । स्वर्ग कथाओं के जो घटनाक्रम एवं व्यक्ति चरित्र जुड़े हैं, उनकी यदि इतिहास-भूगोल से संगति मिलाई जाये तो वे धरती पर ही सिद्ध होते हैं और उस बात में बहुत वजन मालूम पड़ता है, जिसमें कि इन्द्र शासन एवं आर्ष-सभ्यता की संस्कृति का उद्गम स्थान हिमालय का उपरोक्त स्थान बताया गया है । अब वहाँ बर्फ बहुत पड़ने लगी है । ऋतु परिस्थितियों की श्रृंखला में अब वह हिमालय का हृदय असली उत्तराखण्ड इस योग्य नहीं रहा कि वहाँ आज के दुर्बल शरीरों वाला व्यक्ति निवास-स्थान बना सके । इसलिए आधुनिक उत्तराखण्ड नीचे चला गया और हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण, गंगोत्री, गोमुख तक ही उसकी परिधि सीमित हो गयी है ।

"हिमालय के हृदय” क्षेत्र में जहाँ प्राचीन स्वर्ग की विशेषता विद्यमान है, वहाँ तपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आध्यात्मिक क्षेत्र भी विद्यमान है । हमारे मार्गदर्शक वहाँ रहकर प्राचीनतम ऋषियों की इस तप संस्कारित भूमि से अनुपम शक्ति प्राप्त करते हैं । कुछ समय के लिए हमें भी उस स्थान पर रहने का सौभाग्य मिला और वे दिव्य स्थान अपने भी देखने में आये । सो इनका जितना दर्शन हो सका,उसका वर्णन अखण्ड ज्योति में प्रस्तुत किया गया था। वह लेख भी अपने ढंग का अनोखा है । उससे संसार में एक ऐसे स्थान का पता चलता है, जिसे आत्म-शक्ति का ध्रुव कहा जा सकता है । धरती के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुवों में विशेष शक्तियाँ हैं । अध्यात्म शक्ति का एक ध्रुव हमारी समझ में आया हैं। जिसमें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भरी पड़ी हैं । सूक्ष्म शक्तियों की दृष्टि से भी और शरीरधारी सिद्ध पुरुषों की दृष्टि से भी ।
इस दिव्य केन्द्र की ओर लोगों का ध्यान बना रहे, इस दृष्टि से उसका परिचय से तो रहना ही चाहिए, इस दृष्टि उस जानकारी को मूल्यवान ही कहा जा सकता है । ब्रह्मवर्चस,शांतिकुंज,गायत्री नगर का निर्माण उत्तराखण्ड के द्वार में करने का उद्देश्य यही रहा है । जो लोग यहाँ आते हैं, उनने असीम शान्ति प्राप्ति की है । भविष्य में उसका महत्त्व असाधारण होने जा रहा है। उन सम्भावनाओं को व्यक्त तो नहीं किया जा रहा है । अगले दिनों उनसे लोग चमत्कृत हुए बिना न रहेंगे ।

श्रीराम शर्मा आचार्य

सोमवार, 11 मई 2020

दिन अट्ठारह

महाभारत युद्ध के
18 दिनों का रहस्य💐

माना जाता है कि महाभारत युद्ध में
एकमात्र जीवित बचा कौरव युयुत्सु
था और 24,165 कौरव
सैनिक लापता हो गए थे।

लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य
हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की
ओर से लड़े थे। 
 
शोधानुसार जब महाभारत का युद्ध हुआ,
तब श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष थी।

महाभारत युद्ध के 36 वर्ष बाद उन्होंने देह
त्याग दी थी।

इसका मतलब 119 वर्ष की आयु में
उन्होंने देहत्याग किया था।

भगवान श्रीकृष्ण द्वापर के अंत और
कलियुग के आरंभ के संधि काल में
विद्यमान थे।

भागवत पुराण ने अनुसार श्रीकृष्‍ण
के देह छोड़ने के बाद 3102 ईसा

पूर्व कलिकाल का प्रारंभ हुआ था।

इस प्रकार कलियुग को आरंभ
हुए 5120 वर्ष हो गए हैं।

महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों ने अपनी
सेना का पड़ाव कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र
में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे
समंत्र पंचक तीर्थ के पास हिरण्यवती
नदी (सरस्वती नदी की सहायक नदी)
के तट पर डाला।

कौरवों ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग में वहां
से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल
मैदान में अपना पड़ाव डाला।
 
दोनों ओर के शिविरों में सैनिकों के
भोजन और घायलों के इलाज की
उत्तम व्यवस्था थी।

हाथी,घोड़े और रथों की
अलग व्यवस्था थी।

हजारों शिविरों में से प्रत्येक शिविर में
प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री,अस्त्र-शस्त्र,
यंत्र और कई वैद्य और शिल्पी
वेतन देकर रखे गए।
 
दोनों सेनाओं के बीच में युद्ध के लिए
5 योजन(1 योजन= 8 किमी की परिधि,
विष्णु पुराण के अनुसार 4 कोस या कोश
= 1 योजन= 13 किमी से 16 किमी)
=40 किमी का घेरा छोड़ दिया गया था।

कौरवों की ओर थे सहयोगी जनपद:-
गांधार,मद्र,सिन्ध,काम्बोज,कलिंग,सिंहल,
दरद,अभीषह,मागध,पिशाच,कोसल,
प्रतीच्य,बाह्लिक,उदीच्य,अंश,पल्लव,
सौराष्ट्र,अवन्ति,निषाद,शूरसेन,शिबि,
वसति,पौरव,तुषार,चूचुपदेश,अशवक,
पाण्डय,पुलिन्द,पारद,क्षुद्रक,प्राग्ज्योतिषपुर,
मेकल,कुरुविन्द,त्रिपुरा,शल,अम्बष्ठ,कैतव,
यवन,त्रिगर्त,सौविर और प्राच्य।
 
कौरवों की ओर से ये यौद्धा लड़े थे :
भीष्म,द्रोणाचार्य,कृपाचार्य,कर्ण,अश्वत्थामा,
मद्रनरेश शल्य,भूरिश्र्वा,अलम्बुष,कृतवर्मा,
कलिंगराज,श्रुतायुध,शकुनि,भगदत्त,जयद्रथ, 
विन्द-अनुविन्द,काम्बोजराज,सुदक्षिण,बृहद्वल,
दुर्योधन व उसके 99 भाई
सहित अन्य हजारों यौद्धा।
 
पांडवों की ओर थे ये जनपद :
पांचाल,चेदि,काशी,करुष,मत्स्य,केकय,सृंजय,
दक्षार्ण,सोमक,कुन्ति,आनप्त,दाशेरक,प्रभद्रक,
अनूपक,किरात,पटच्चर,तित्तिर,चोल,पाण्ड्य,
अग्निवेश्य,हुण्ड,दानभारि,शबर,उद्भस,वत्स,
पौण्ड्र,पिशाच,पुण्ड्र,कुण्डीविष,मारुत,धेनुक,
तगंण और परतगंण।
 
पांडवों की ओर से लड़े थे ये यौद्धा :
भीम,नकुल,सहदेव,अर्जुन,युधिष्टर,द्रौपदी
के पांचों पुत्र,सात्यकि,उत्तमौजा,विराट,द्रुपद,
धृष्टद्युम्न,अभिमन्यु,पाण्ड्यराज,घटोत्कच,
शिखण्डी,युयुत्सु,कुन्तिभोज,उत्तमौजा,
शैब्य और अनूपराज नील।
 
तटस्थ जनपद :
विदर्भ,शाल्व,चीन,लौहित्य,शोणित,नेपा,
कोंकण,कर्नाटक,केरल,आन्ध्र,द्रविड़ आदि
ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।

पितामह भीष्म की सलाह पर दोनों दलों
ने एकत्र होकर युद्ध के कुछ नियम बनाए।

उनके बनाए हुए नियम निम्नलिखित हैं-
 
1. प्रतिदिन युद्ध सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त
तक ही रहेगा।
सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं होगा।

2. युद्ध समाप्ति के पश्‍चात छल-कपट
छोड़कर सभी लोग प्रेम का व्यवहार करेंगे।

3. रथी रथी से,हाथी वाला हाथी वाले से
और पैदल पैदल से ही युद्ध करेगा।

4. एक वीर के साथ एक ही वीर युद्ध करेगा।

5. भय से भागते हुए या शरण में आए हुए
लोगों पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं किया
जाएगा।

6. जो वीर निहत्था हो जाएगा उस पर
कोई अस्त्र नहीं उठाया जाएगा।

7. युद्ध में सेवक का काम करने वालों पर
कोई अस्त्र नहीं उठाएगा।

प्रथम दिन का युद्ध :

प्रथम दिन एक ओर जहां कृष्ण-अर्जुन
अपने रथ के साथ दोनों ओर की सेनाओं
के मध्य खड़े थे और अर्जुन को गीता का
उपदेश दे रहे थे।

इसी दौरान भीष्म पितामह ने सभी योद्धाओं
को कहा कि अब युद्ध शुरू होने वाला है।

इस समय जो भी योद्धा अपना खेमा
बदलना चाहे वह स्वतंत्र है कि वह जिसकी
तरफ से भी चाहे युद्ध करे।

इस घोषणा के बाद धृतराष्ट्र का पुत्र युयुत्सु
डंका बजाते हुए कौरव दल को छोड़ पांडवों
के खेमे में चले गया।

ऐसा युधिष्ठिर के क्रियाकलापों
के कारण संभव हुआ था।

श्रीकृष्ण के उपदेश के बाद अर्जुन ने देवदत्त
नामक शंख बजाकर युद्ध की घोषणा की।
 
इस दिन 10 हजार सैनिकों की मृत्यु हुई।
भीम ने दु:शासन पर आक्रमण किया।
अभिमन्यु ने भीष्म का धनुष तथा रथ
का ध्वजदंड काट दिया।

पहले दिन की समाप्ति पर पांडव पक्ष को
भारी नुकसान उठाना पड़ा।

विराट नरेश के पुत्र उत्तर और श्वेत क्रमशः
शल्य और भीष्म के द्वारा मारे गए।

भीष्म द्वारा उनके कई सैनिकों
का वध कर दिया गया।
 
कौन मजबूत रहा :
पहला दिन पांडव पक्ष को नुकसान
उठाना पड़ा और कौरव पक्ष मजबूत रहा।
 
दूसरे दिन का युद्ध :

कृष्ण के उपदेश के बाद अर्जुन तथा भीष्म,
धृष्टद्युम्न तथा द्रोण के मध्य युद्ध हुआ।
सात्यकि ने भीष्म के सारथी को घायल
कर दिया।
 
द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न को कई बार हराया
और उसके कई धनुष काट दिए,भीष्म द्वारा
अर्जुन और श्रीकृष्ण को कई बार घायल
किया गया।

इस दिन भीम का कलिंगों और निषादों
से युद्ध हुआ तथा भीम द्वारा सहस्रों कलिंग
और निषाद मार गिराए गए,अर्जुन ने भी
भीष्म को भीषण संहार मचाने से रोके रखा।

कौरवों की ओर से लड़ने वाले कलिंगराज
भानुमान, केतुमान,अन्य कलिंग वीर योद्धा
मारे गए।
 
कौन मजबूत रहा :
दूसरे दिन कौरवों को नुकसान उठाना पड़ा
और पांडव पक्ष मजबूत रहा।

तीसरा दिन :
कौरवों ने गरूड़ तथा पांडवों ने अर्धचंद्राकार
जैसी सैन्य व्यूह रचना की।
कौरवों की ओर से दुर्योधन तथा पांडवों की
ओर से भीम व अर्जुन सुरक्षा कर रहे थे।

इस दिन भीम ने घटोत्कच के साथ मिलकर
दुर्योधन की सेना को युद्ध से भगा दिया।
यह देखकर भीष्म भीषण संहार मचा देते हैं।
श्रीकृष्ण अर्जुन को भीष्म वध करने को
कहते हैं,परंतु अर्जुन उत्साह से युद्ध नहीं
कर पाता जिससे श्रीकृष्ण स्वयं भीष्म को
मारने के लिए उद्यत हो जाते हैं,परंतु अर्जुन
उन्हें प्रतिज्ञारूपी आश्वासन देकर कौरव
सेना का भीषण संहार करते हैं।

वे एक दिन में ही समस्त प्राच्य,सौवीर,
क्षुद्रक और मालव क्षत्रियगणों को मार
गिराते हैं। 
 
भीम के बाण से दुर्योधन अचेत हो गया और
तभी उसका सारथी रथ को भगा ले गया।

भीम ने सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया।

इस दिन भी कौरवों को ही अधिक क्षति
उठाना पड़ती है।

उनके प्राच्य,सौवीर,क्षुद्रक और मालव
वीर योद्धा मारे जाते हैं।
 
कौन मजबूत रहा :
इस दोनों ही पक्ष ने डट कर मुकाबला किया।
 
चौथा दिन :
चौथे दिन भी कौरव पक्ष को
भारी नुकसान हुआ।
इस दिन कौरवों ने अर्जुन को अपने बाणों
से ढंक दिया,परंतु अर्जुन ने सभी को मार
भगाया।

भीम ने तो इस दिन कौरव सेना में हाहाकार
मचा दी,दुर्योधन ने अपनी गज सेना भीम को
मारने के लिए भेजी,परंतु घटोत्कच की
सहायता से भीम ने उन सबका नाश कर
दिया और 14 कौरवों को भी मार गिराया,
परंतु राजा भगदत्त द्वारा जल्द ही भीम पर
नियंत्रण पा लिया गया।

बाद में भीष्म को भी अर्जुन और भीम
ने भयंकर युद्ध कर कड़ी चुनौती दी।
 
कौन मजबूत रहा :

इस दिन कौरवों को नुकसान उठाना पड़ा
और पांडव पक्ष मजबूत रहा।
 
पांचवें दिन का युद्ध :
श्रीकृष्ण के उपदेश के बाद युद्ध
की शुरुआत हुई और फिर भयंकर
मार-काट मची।

दोनों ही पक्षों के सैनिकों का
भारी संख्या में वध हुआ।

इस दिन भीष्म ने पांडव सेना को अपने
बाणों से ढंक दिया। उन पर रोक लगाने
के लिए क्रमशः अर्जुन और भीम ने उनसे
भयंकर युद्ध किया।

सात्यकि ने द्रोणाचार्य को भीषण संहार
करने से रोके रखा।

भीष्म द्वारा सात्यकि को युद्ध क्षेत्र
से भगा दिया गया।
सात्यकि के 10 पुत्र मारे गए। 
 
कौन मजबूत रहा :
इस दोनों ही पक्ष ने डट कर मुकाबला किया।
 
छठे दिन का युद्ध :
कौरवों ने क्रोंचव्यूह तथा पांडवों ने मकरव्यूह
के आकार की सेना कुरुक्षे‍त्र में उतारी।

भयंकर युद्ध के बाद द्रोण का
सारथी मारा गया।
युद्ध में बार-बार अपनी हार से दुर्योधन
क्रोधित होता रहा,परंतु भीष्म उसे ढांढस
बंधाते रहे।
अंत में भीष्म द्वारा पांचाल सेना का
भयंकर संहार किया गया।
 
कौन मजबूत रहा :
इस दोनों ही पक्ष ने डट कर मुकाबला किया।

सातवें दिन का युद्ध :
सातवें दिन कौरवों द्वारा मंडलाकार व्यूह
की रचना और पांडवों ने वज्र व्यूह की
आकृति में सेना लगाई।

मंडलाकार में एक हाथी के पास सात रथ,
एक रथ की रक्षार्थ सात अश्‍वारोही,एक
अश्‍वारोही की रक्षार्थ सात धनुर्धर तथा
एक धनुर्धर की रक्षार्थ दस
सैनिक लगाए गए थे।

सेना के मध्य दुर्योधन था। वज्राकार में
दसों मोर्चों पर घमासान युद्ध हुआ।
 
इस दिन अर्जुन अपनी युक्ति से कौरव
सेना में भगदड़ मचा देता है।
धृष्टद्युम्न दुर्योधन को युद्ध में हरा देता है।
अर्जुन पुत्र इरावान द्वारा विन्द और अनुविन्द
को हरा दिया जाता है,भगदत्त घटोत्कच को
और नकुल सहदेव मिलकर शल्य को युद्ध
क्षेत्र से भगा देते हैं।

यह देखकर एकभार भीष्म फिर से पांडव
सेना का भयंकर संहार करते हैं।
 
विराट पुत्र शंख के मारे जाने से इस दिन
कौरव पक्ष की क्षति होती है।

कौन मजबूत रहा :
इस दोनों ही पक्ष ने डट कर मुकाबला किया।
 
आठवें दिन का युद्ध :

कौरवों ने कछुआ व्यूह तो पांडवों ने तीन
शिखरों वाला व्यूह रचा।

पांडव पुत्र भीम धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का
वध कर देते हैं।
अर्जुन की दूसरी पत्नी उलूपी के पुत्र
इरावान का बकासुर के पुत्र आष्ट्रयश्रंग
(अम्बलुष) के द्वारा वध कर दिया जाता है।
 
घटोत्कच द्वारा दुर्योधन पर शक्ति का
प्रयोग किया गया परंतु बंगनरेश ने दुर्योधन
को हटाकर शक्ति का प्रहार स्वयं के ऊपर
ले लिया तथा बंगनरेश की मृत्यु हो जाती है।

इस घटना से दुर्योधन के मन में मायावी
घटोत्कच के प्रति भय व्याप्त हो जाता है।
 
तब भीष्म की आज्ञा से भगदत्त घटोत्कच
को हराकर भीम, युधिष्ठिर व अन्य पांडव
सैनिकों को पीछे ढकेल देता है।
दिन के अंत तक भीमसेन धृतराष्ट्र के नौ
और पुत्रों का वध कर देता है।
 
पांडव पक्ष की क्षति :
अर्जुन पुत्र इरावान का अम्बलुष द्वारा वध।
कौरव पक्ष की क्षति : धृतराष्ट्र के 17 पुत्रों
का भीम द्वारा वध।

कौन मजबूत रहा :
इस दोनों ही पक्ष ने डट किया और दोनों
ही पक्ष को नुकसान उठाना पड़ा।

हालांकि कौरवों को ज्यादा क्षति पहुंची।

नौवें दिन का युद्ध :
कृष्ण के उपदेश के बाद भयंकर युद्ध हुआ
जिसके चलते भीष्म ने बहादुरी दिखाते हुए
अर्जुन को घायल कर उनके रथ को जर्जर
कर दिया।
युद्ध में आखिरकार भीष्म के भीषण संहार
को रोकने के लिए कृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा
तोड़नी पड़ती है।

उनके जर्जर रथ को देखकर श्रीकृष्ण रथ
का पहिया लेकर भीष्म पर झपटते हैं,
लेकिन वे शांत हो जाते हैं,परंतु इस दिन
भीष्म पांडवों की सेना का अधिकांश
भाग समाप्त कर देते हैं।
 
कौन मजबूत रहा : कौरव
 
दसवां दिन :
भीष्म द्वारा बड़े पैमाने पर पांडवों की सेना
को मार देने से घबराए पांडव पक्ष में भय
फैल जाता है,तब श्रीकृष्ण के कहने पर
पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर
उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं।

भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं।
 
इसके बाद भीष्म पांचाल तथा मत्स्य सेना
का भयंकर संहार कर देते हैं।
फिर पांडव पक्ष युद्ध क्षे‍त्र में भीष्म के सामने
शिखंडी को युद्ध करने के लिए लगा देते हैं।

युद्ध क्षेत्र में शिखंडी को सामने डटा देखकर
भीष्म ने अपने अस्त्र त्याग दिए।

इस दौरान बड़े ही बेमन से अर्जुन ने अपने
बाणों से भीष्म को छेद दिया।

भीष्म बाणों की शरशय्या पर लेट गए।

भीष्म ने बताया कि वे सूर्य के उत्तरायण
होने पर ही शरीर छोड़ेंगे,
क्योंकि उन्हें अपने पिता शांतनु से इच्छा
मृत्यु का वर प्राप्त है।
 
पांडव पक्ष की क्षति : शतानीक
कौरव पक्ष की क्षति : भीष्म
कौन मजबूत रहा : पांडव

ग्यारहवें दिन :
भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद
ग्यारहवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने
पर द्रोण सेनापति बनाए जाते हैं।

ग्यारहवें दिन सुशर्मा तथा अर्जुन,शल्य
तथा भीम, सात्यकि तथा कर्ण और सहदेव
तथा शकुनि के मध्य युद्ध हुआ।
कर्ण भी इस दिन पांडव सेना
का भारी संहार करता है।
 
दुर्योधन और शकुनि द्रोण से कहते हैं कि
वे युधिष्ठिर को बंदी बना लें तो युद्ध अपने
आप खत्म हो जाएगा,तो जब दिन के अंत
में द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हराकर उसे
बंदी बनाने के लिए आगे बढ़ते ही हैं कि
अर्जुन आकर अपने बाणों की वर्षा से
उन्हें रोक देता है।

नकुल,युधिष्ठिर के साथ थे व अर्जुन भी
वापस युधिष्ठिर के पास आ गए।
इस प्रकार कौरव युधिष्ठिर
को नहीं पकड़ सके।
 
पांडव पक्ष की क्षति : विराट का वध
कौन मजबूत रहा : कौरव
 
बारहवें दिन का युद्ध :
कल के युद्ध में अर्जुन के कारण युधिष्ठिर
को बंदी न बना पाने के कारण शकुनि व
दुर्योधन अर्जुन को युधिष्ठिर से काफी दूर
भेजने के लिए त्रिगर्त देश के राजा को
उससे युद्ध कर उसे वहीं युद्ध में व्यस्त
बनाए रखने को कहते हैं,वे ऐसा करते
भी हैं,परंतु एक बार फिर अर्जुन समय
पर पहुंच जाता है और द्रोण असफल
हो जाते हैं।
 
होता यह है कि जब त्रिगर्त, अर्जुन को
दूर ले जाते हैं तब सात्यकि,युधिष्ठिर के
रक्षक थे।

वापस लौटने पर अर्जुन ने प्राग्ज्योतिषपुर
(पूर्वोत्तर का कोई राज्य) के राजा भगदत्त
को अर्धचंद्र को बाण से मार डाला।

सात्यकि ने द्रोण के रथ का पहिया काटा
और उसके घोड़े मार डाले।
द्रोण ने अर्धचंद्र बाण द्वारा सात्यकि
का सिर काट ‍लिया।
 
सात्यकि ने कौरवों के अनेक उच्च कोटि
के योद्धाओं को मार डाला जिनमें से प्रमुख
जलसंधि,त्रिगर्तों की गजसेना,सुदर्शन,
म्लेच्छों की सेना,भूरिश्रवा,कर्णपुत्र प्रसन थे।

युद्ध भूमि में सात्यकि को भूरिश्रवा से कड़ी
टक्कर झेलनी पड़ी।
हर बार सात्यकि को कृष्ण
और अर्जुन ने बचाया।
 
पांडव पक्ष की क्षति : द्रुपद
कौरव पक्ष की क्षति : त्रिगर्त नरेश
कौन मजबूत रहा : दोनों

तेरहवें दिन :
कौरवों ने चक्रव्यूह की रचना की।
इस दिन दुर्योधन राजा भगदत्त को अर्जुन
को व्यस्त बनाए रखने को कहते हैं।
भगदत्त युद्ध में एक बार फिर से पांडव
वीरों को भगाकर भीम को एक बार फिर
हरा देते हैं फिर अर्जुन के साथ भयंकर
युद्ध करते हैं।
श्रीकृष्ण भगदत्त के वैष्णवास्त्र को अपने
ऊपर ले उससे अर्जुन की रक्षा करते हैं।
 
अंततः अर्जुन भगदत्त की आंखों की पट्टी
को तोड़ देता है जिससे उसे दिखना बंद हो
जाता है और अर्जुन इस अवस्था में ही छल
से उनका वध कर देता है।

इसी दिन द्रोण युधिष्ठिर के लिए चक्रव्यूह
रचते हैं जिसे केवल अभिमन्यु तोड़ना
जानता था,परंतु निकलना नहीं जानता था।

अतः अर्जुन युधिष्ठिर,भीम आदि को उसके
साथ भेजता है,परंतु चक्रव्यूह के द्वार पर वे
सबके सब जयद्रथ द्वारा शिव के वरदान के
कारण रोक दिए जाते हैं और केवल
अभिमन्यु ही प्रवेश कर पाता है। 
 
ये लोग करते हैं अभिमन्यु का वध :
कर्ण के कहने पर सातों महारथियों कर्ण,
जयद्रथ,द्रोण,अश्वत्थामा,दुर्योधन,लक्ष्मण
तथा शकुनि ने एकसाथ
अभिमन्यु पर आक्रमण किया।

लक्ष्मण ने जो गदा अभिमन्यु के सिर पर
मारी वही गदा अभिमन्यु ने लक्ष्मण को
फेंककर मारी।
इससे दोनों की उसी समय मृत्यु हो गई।
 
अभिमन्यु के मारे जाने का समाचार सुनकर
जयद्रथ को कल सूर्यास्त से पूर्व मारने की
अर्जुन ने प्रतिज्ञा की अन्यथा अग्नि समाधि
ले लेने का वचन दिया।
 
पांडव पक्ष की क्षति : अभिमन्यु
कौन मजबूत रहा : पांडव
 
चौदहवें दिन : अर्जुन की अग्नि समाधि वाली
बात सुनकर कौरव पक्ष में हर्ष व्याप्त हो जाता
है और फिर वे यह योजना बनाते हैं कि आज
युद्ध में जयद्रथ को बचाने के लिए सब कौरव
योद्धा अपनी जान की बाजी लगा देंगे।

द्रोण जयद्रथ को बचाने का पूर्ण
आश्वासन देते हैं और उसे सेना के
पिछले भाग में छिपा देते हैं।
 
युद्ध शुरू होता है।
भूरिश्रवा,सात्यकि को मारना चाहता था
तभी अर्जुन ने भूरिश्रवा के हाथ काट दिए,
वह धरती पर गिर पड़ा तभी सात्यकि ने
उसका सिर काट दिया।
द्रोण द्रुपद और विराट को मार देते हैं।
 
तब कृष्ण अपनी माया से सूर्यास्त कर देते हैं।
सूर्यास्त होते देख अर्जुन अग्नि समाधि की
तैयारी करने लगे जाते हैं।

छिपा हुआ जयद्रथ जिज्ञासावश अर्जुन को
अग्नि समाधि लेते देखने के लिए बाहर
आकर हंसने लगता है,उसी समय श्रीकृष्ण
की कृपा से सूर्य पुन: निकल आता है और
तुरंत ही अर्जुन सबको रौंदते हुए कृष्ण द्वारा
किए गए क्षद्म सूर्यास्त के कारण बाहर आए
जयद्रथ को मारकर उसका मस्तक
उसके पिता के गोद में गिरा देते हैं।
 
पांडव पक्ष की क्षति : द्रुपद, विराट
कौरव पक्ष की क्षति : जयद्रथ, भगदत्त,

पंद्रहवें दिन :
द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से
पांडवों के ‍खेमे में दहशत फैल गई।
पिता-पुत्र ने मिलकर महाभारत युद्ध में
पांडवों की हार सुनिश्चित कर दी थी।
पांडवों की हार को देखकर श्रीकृष्ण ने
युधिष्ठिर से छल का सहारा लेने को कहा।

इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला
दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया',लेकिन
युधिष्‍ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे।

तब अवंतिराज के अश्‍वत्थामा नामक
हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया।
इसके बाद युद्ध में यह बाद फैला दी गई कि
'अश्वत्थामा मारा गया'।
 
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से
अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो
उन्होंने जवाब दिया- 'अश्वत्थामा मारा गया,
परंतु हाथी।'

श्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया
जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य
आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और
उन्होंने समझा मेरा पुत्र मारा गया।

यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और
युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए।
यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था
जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार
से उनका सिर काट डाला।
 
कौरव पक्ष की क्षति : द्रोण
कौन मजबूत रहा : पांडव
 
सोलहवें दिन का युद्ध :
द्रोण के छल से वध किए जाने के बाद कौरवों
की ओर से कर्ण को सेनापति बनाया जाता है।

कर्ण पांडव सेना का भयंकर संहार करता है
और वह नकुल व सहदेव को युद्ध में हरा देता
है,परंतु कुंती को दिए वचन को स्मरण कर
उनके प्राण नहीं लेता।
फिर अर्जुन के साथ भी भयंकर संग्राम करता है।
 
दुर्योधन के कहने पर कर्ण ने अमोघ शक्ति
द्वारा घटोत्कच का वध कर दिया।
यह अमोघ शक्ति कर्ण ने अर्जुन के लिए
बचाकर रखी थी लेकिन घटोत्कच से घबराए
दुर्योधन ने कर्ण से इस शक्ति का इस्तेमाल
करने के लिए कहा।

यह ऐसी शक्ति थी जिसका वार कभी खाली
नहीं जा सकता था।
कर्ण ने इसे अर्जुन का वध करने के
लिए बचाकर रखी थी।
 
इस बीच भीम का युद्ध दुःशासन के साथ
होता है और वह दु:शासन का वध कर
उसकी छाती का रक्त पीता है और अंत
में सूर्यास्त हो जाता है।
 
कौरव पक्ष की क्षति : दुःशासन
कौन मजबूत रहा : दोनों

सत्रहवें दिन :
शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया।
इस दिन कर्ण भीम और युधिष्ठिर को
हराकर कुंती को दिए वचन को स्मरण
कर उनके प्राण नहीं लेता।
बाद में वह अर्जुन से युद्ध करने लग
जाता है।
कर्ण तथा अर्जुन के मध्य
भयंकर युद्ध होता है।
कर्ण के रथ का पहिया धंसने पर श्रीकृष्ण
के इशारे पर अर्जुन द्वारा असहाय अवस्था
में कर्ण का वध कर दिया जाता है।
 
इसके बाद कौरव अपना
उत्साह हार बैठते हैं।

उनका मनोबल टूट जाता है।
फिर शल्य प्रधान सेनापति बनाए गए,
परंतु उनको भी युधिष्ठिर दिन के अंत
में मार देते हैं।
 
कौरव पक्ष की क्षति : कर्ण,शल्य और
दुर्योधन के 22 भाई मारे जाते हैं।
कौन मजबूत रहा : पांडव

अठारहवें दिन का युद्ध :
अठारहवें दिन कौरवों के तीन योद्धा शेष
बचे- अश्‍वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा।
इसी दिन अश्वथामा द्वारा पांडवों के वध की
प्रतिज्ञा ली गई।

सेनापति अश्‍वत्थामा तथा कृपाचार्य के
कृतवर्मा द्वारा रात्रि में पांडव शिविर पर
हमला किया गया।

अश्‍वत्थामा ने सभी पांचालों,द्रौपदी के
पांचों पुत्रों,धृष्टद्युम्न तथा शिखंडी आदि
का वध किया।

पिता को छलपूर्वक मारे जाने का जानकर
अश्वत्थामा दुखी होकर क्रोधित हो गए और
उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया जिससे
युद्ध भूमि श्मशान भूमि में बदल गई।

यह देख कृष्ण ने उन्हें कलियुग के अंत तक
कोढ़ी के रूप में जीवित रहने का शाप दे डाला।

इस दिन भीम दुर्योधन के बचे हुए भाइयों
को मार देता है,सहदेव शकुनि को मार देता
है और अपनी पराजय हुई जान दुर्योधन
भागकर सरोवर के स्तंभ में जा छुपता है।

इसी दौरान बलराम तीर्थयात्रा से वापस
आ गए और दुर्योधन को निर्भय रहने का
आशीर्वाद दिया। 

छिपे हुए दुर्योधन को पांडवों द्वारा ललकारे
जाने पर वह भीम से गदा युद्ध करता है और
छल से जंघा पर प्रहार किए जाने से उसकी
मृत्यु हो जाती है।
इस तरह पांडव विजयी होते हैं।

पांडव पक्ष की क्षति : द्रौपदी के पांच पुत्र,
धृष्टद्युम्न,शिखंडी
कौरव पक्ष की क्षति : दुर्योधन

कुछ यादव युद्ध में और बाद में गांधारी के
शाप के चलते आपसी युद्ध में मारे गए।
पांडव पक्ष के विराट और विराट के पुत्र उत्तर,
शंख और श्वेत,सात्यकि के दस पुत्र,अर्जुन पुत्र
इरावान,द्रुपद,द्रौपदी के पांच पुत्र,धृष्टद्युम्न,
शिखंडी,कौरव पक्ष के कलिंगराज भानुमान,
केतुमान,अन्य कलिंग वीर,प्राच्य,सौवीर,
क्षुद्रक और मालव वीर।
 
कौरवों की ओर से धृतराष्ट्र के दुर्योधन सहित
सभी पुत्र,भीष्म,त्रिगर्त नरेश,जयद्रथ,भगदत्त,
द्रौण,दुःशासन,कर्ण,शल्य आदि सभी युद्ध में
मारे गए थे।
 
युधिष्ठिर ने महाभारत युद्ध की समाप्ति पर
बचे हुए मृत सैनिकों का(चाहे वे शत्रु वर्ग के
हों अथवा मित्र वर्ग के)दाह-संस्कार एवं
तर्पण किया था।

इस युद्ध के बाद युधिष्ठिर को राज्य,धन,
वैभव से वैराग्य हो गया।
 
कहते हैं कि महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन
अपने भाइयों के साथ हिमालय चले गए
और वहीं उनका देहांत हुआ।
 
बच गए योद्धा : महाभारत के युद्ध के पश्चात
कौरवों की तरफ से 3 और पांडवों की तरफ
से 15 यानी कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे
थे जिनके नाम हैं- कौरव के : कृतवर्मा,
कृपाचार्य और अश्वत्थामा,जबकि पांडवों
की ओर से युयुत्सु,युधिष्ठिर,अर्जुन,भीम,
नकुल,सहदेव,कृष्ण, सात्यकि आदि।

सदा सर्वदासुमंगल💐
हर हर महादेव💐
ॐ नमो नारायणाय💐
जयभवानी💐
जयश्रीराम💐