शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

सुनसान के सहचर १७

सुनसान के सहचर १७
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आलू का भालू

आज गंगोत्री यात्रियों का एक दल और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमी थे-पाँच पुरुष, दो स्त्रियां । हमारा बोझा तो हमारे कन्धे पर था, पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिए चल रहा था। कुली देहाती था, उसकी भाषा भी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी। स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था । झाला चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे, तो उँगली का इशारा करके उसने कुछ विचित्र डरावनी-सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा । सब बात तो समझ में नहीं आई, पर दल के एक आदमी ने इतना ही समझा भालू-भालू, वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था, कोई चीज ठीक से दिखाई नहीं पड़ती थी, पर जिधर कुली ने इशारा किया था, उधर काले-काले कोई जानवर उसे घूमते नजर आये।

जिस साथी ने कुली के मुँह से भालू-भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा में काले-काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू-रीछ घूम रहे हैं । वह पीछे था, पैर दाब कर जल्दी-जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय, कुछ देर में वह हमारे साथ आ गया । होंठ सूख रहे थे और भय से काँप रहा था । उसने हम सबको रोका और नीचे काले जानवर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं, अब यहाँ जान का खतरा ।

डर तो हम सभी गये, पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाये? जंगल काफी घना था-डरावना भी, उसमें रीछ के होने की बात असम्भव न थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढ़ी-चढ़ी बातें परसों ही साथी यात्रियों से सुनी थीं, जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था, काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीख रही थी, पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता दी है, अब संदेह की बात नहीं । सोचा-कुली से ही पूछें कि अब क्या करना चाहिए, पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब ......
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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