बुधवार, 23 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १४

सुनसान के सहचर १४
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चाँदी के पहाड़

आज सुक्की चट्टी पर धर्मशाला के ऊपर की मंजिल की कोठरी में ठहरे थे, सामने ही बर्फ से ढकी पर्वत की चोटी दिखाई पड़ रही थी बर्फ पिघल कर धीरे-धीरे पानी का रूप धारण कर रही थी, वह झरने के रूप में नीचे की तरफ बह रही थी । कुछ बर्फ पूरी तरह गलने से पहले ही पानी के साथ मिलकर बहन लगती थी, इसलिए दूर से झरना ऐसा लगता था, मानो फेनदार दूध ऊपर बढ़ता चला आ रहा हो । दृश्य बहुत ही शोभायमान था, देखकर आँखें ठण्डी हो रही थी।

जिस कोठरी में अपना ठहरना था, उससे तीसरी कोठी में अन्य यात्री ठहरे हुए थे, उनमें दो बच्चे भी थे । एक लड़की-दूसरा लड़का,दोनों की उम्र ११-१२ वर्ष के लगभग रही होगी, उनके माता-पिता यात्रा पर थे । इन बच्चों को कुलियों की पीठ पर इस प्रान्त में चलने वाली “कन्द्री" सवारी में बिठाकर लाये थे, बच्चे हँसमुख और बातूनी थे ।

दोनों में बहस हो रही थी कि यह सफेद चमकता हुआ पहाड़ किस चीज का है। उसनेे कहीं सुन रखा था कि धातुओं की खानें पहाड़ों में होती है। बच्चों ने संगति मिलाई कि पहाड़ चाँदी का है । लड़की को इसमें सन्देह हुआ, वह यह तो न सोच सकी कि चाँदी का न होगा तो और किस चीज का होगा, पर यह जरूर सोचा कि इतनी चाँदी इस प्रकार खुली पड़ी होती तो कोई न कोई उसे उठा ले जाने की कोशिश जरूर करता । वह लड़के की बात से सहमत नहीं हुई और जिद्दा-जिद्दी चल पड़ी।

मुझे विवाद मनोरंजक लगा, बच्चे भी प्यारे लगे । दोनों को बुलाया और समझाया कि यह पहाड़ तो पत्थर का है; पर ऊँचा होने के कारण बर्फ जम गई है । गर्मी पड़ने पर यह बर्फ पिघल जाती है और सर्दी पड़ने
पर जमने लगती है, वह बर्फ ही चमकने पर चाँदी जैसी लगती है । बच्चों का एक समाधान तो हो गया; पर वे उसी सिलसिले में ढेरों प्रश्न पूछते गये, मैं भी उनके ज्ञान-वृद्धि की दृष्टि से पर्वतीय जानकारी से सम्बन्धित बहुत-सी बातें उन्हें बताता रहा ।
 सोचता हूँ, बचपन में मनुष्य की बुद्धि कितनी अविकसित होती है कि वह बर्फ जैसी मामूली चीज को चाँदी जैसी मूल्यवान् समझता है ।

बड़े आदमी की सूझ-बूझ ऐसी नहीं होती, वह वस्तुस्थिति को गहराई से सोच और समझ सकता है । यदि छोटेपन में ही इतनी समझ आ जाय तो बच्चों को भी यथार्थता को पहचानने में कितनी सुविधा हो । पर मेरा यह सोचना भी गलत ही है, क्योंकि बड़े होने पर भी मनुष्य समझदार कहाँ हो पाता है । जैसे ये दोनों बच्चे बर्फ को चाँदी समझ रहे तथा, उसी प्रकार चाँदी-ताँबे के टुकड़ों को इन्द्रिय छेदों पर मचने वाली खुजली को, नगण्य अहंकार को, तुच्छ शरीर को बड़ी आयु का मनुष्य भी न जाने कितना अधिक महत्त्व दे डालता है और उसकी ओर इतना आकर्षित होता है कि जीवन लक्ष्य को भुलाकर भविष्य को अन्धकारमय
बना लेने की परवाह नहीं करता ।
सांसारिक क्षणिक और सारहीन आकर्षणों में हमारा मन उनसे भी अधिक तल्लीन हो जाता है जितना कि छोटे बच्चों का मिट्टी के खिलौने के साथ खेलने में, कागज की नाव बहाने में लगता है । पढ़ना-लिखना, खाना-पीना छोड़कर पतंग उड़ाने में निमग्न बालक को अभिभावक उसकी अदूरदर्शिता पर धमकाते हैं, पर हम बड़ी आयु वालों को कौन धमकाए? जो आत्म स्वार्थ को भुलाकर विषय विकारों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली बने हुए हैं बर्फ चाँदी नहीं है, यह बात मानने में इन बच्चों का समाधान हो गया था, पर तृष्णा और वासना जीवन लक्ष्य नहीं है, हमारी इस भ्रांति का कौन समाधान करे?
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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सोमवार, 21 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १३

सुनसान के सहचर १३
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इस कथा का स्पष्ट और व्यक्तिगत अनुभव आज उस संकरे विकट रास्ते को पार करते हुए किया । हम लोग कई पथिक साथ थे । वैसे खूब हँसते-बोलते चलते थे; पर जहाँ वह सँकरी पगडण्डी आई कि सभी चुप
हो गए। बातचीत के सभी विषय समाप्त थे, न किसी को घर की याद आ रही थी और न किसी अन्य विषय पर ध्यान था। चित्त पूर्ण एकाग्र था और केवल यही एक प्रश्न पूरे मनोयोग के साथ चल रहा था कि अगला पैर ठीक जगह पर पड़े । एक हाथ से हम लोग पहाड़ को पकड़ते चलते थे, यद्यपि उसमें पकड़ने जैसी कोई चीज नहीं थी, तो भी इस आशा से कि यदि शरीर की झोंक गंगा की तरफ झुकी तो संतुलन को ठीक रखने में पहाड़ को पकड़-पकड़ कर चलने का उपक्रम कुछ न कुछ सहायक होगा । इन डेढ़-दो मील की यह यात्रा बड़ी कठिनाई के साथ पूरी की । दिल हर घड़ी धड़कता रहा । जीवन को बचाने के लिए कितनी सावधानी की आवश्यकता है-यह पाठ क्रियात्मक रूप से आज ही पढ़ा। यह विकट यात्रा पूरी हो गई, पर अब भी कई विचार उसके स्मरण के साथ-साथ उठ रहे हैं । सोचता हूँ यदि हम सदा मृत्यु को निकट ही देखते रहें, तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाले मृग तृष्णाओं से बच सकते हैं । जीवन लक्ष्य की यात्रा भी हमारी आज की यात्रा के समान ही है, जिसमें हर कदम साध-साध कर रखा जाना जरूरी है । यदि एक भी कदम गलत या गफलत भरा उठ जाय, तो मानव जीवन के महान् लक्ष्य से पतित होकर हम एक अथाह गर्त में गिर सकते हैं । जीवन से हमें प्यार है, तो प्यार को चरितार्थ करने का एक ही तरीका है कि सही तरीके से अपने को चलाते हुए इस सँकरी पगडण्डी से पार ले चलें, जहाँ से शान्तिपूर्ण यात्रा पर चल पड़े । मनुष्य जीवन ऐसा ही उत्तरदायित्वपूर्ण है, जैसा उस गंगा तट की खड़ी पगडण्डी पर चलने वालों का । उसे ठीक तरह निवाह देने पर ही सन्तोष की साँस ले सके और यह आशा कर सके कि उस अभीष्ट तीर्थ के दर्शन कर सकेंगे । कर्तव्य पालन की पगडण्डी ऐसी सँकरी है; उसमें लापरवाही बरतने पर जीवन लक्ष्य के प्राप्त होने की आशा कौन कर सकता है? धर्म के पहाड़ की दीवार की तरह पकड़कर चलने पर हम अपना यह सन्तुलन बनाये रह सकते हैं,
जिससे खतरे की ओर झुक पड़ने का भय कम हो जाय । आड़े वक्त में इस दीवार का सहारा ही हमारे लिए बहुत कुछ है। धर्म की आस्था भी लक्ष्य की मंजिल को ठीक तरह पार कराने में बहुत कुछ सहायक मानी जायेगी।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १२

सुनसान के सहचर १२
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               हिमालय में प्रवेश

      मृत्यु सी भयानक सँकरी पगडण्डी
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आज बहुत दूर तक विकट रास्ते से चलना पड़ा। नीचे गंगा बह रही थी, ऊपर पहाड़ खड़ा था । पहाड़ के निचले भाग में होकर चलने की संकरी सी पगडण्डी थी । उसकी चौड़ाई मुश्किल से तीन फुट रही होगी। उसी पर होकर चलना था । पैर भी इधर-उधर हो जाय तो नीचे गरजती हुई गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने में कुछ देर न थी । जरा बचकर चले, तो दूसरी ओर सैकड़ों फुट ऊँचा पर्वत सीधा तना खड़ा था। यह एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था । सँकरी सी पगडण्डी पर सँभाल-सँभाल कर एक-एक कदम रखना पड़ता था; क्योंकि जीवन और मृत्यु के बीच एक डेढ़ फुट का अन्तर था ।
मृत्यु का डर कैसा होता है उसका अनुभव जीवन में पहली बार हुआ। एक पौराणिक कथा सुनी थी कि राजा जनक ने शुकदेव जी को अपने कर्मयोगी होने की स्थिति समझाने के लिए तेल का भरा कटोरा हाथ मे देकर नगर के चारों ओर भ्रमण करते हुए वापिस आने को कहा और साथ ही कह दिया था कि यदि एक बूँद भी तेल फैला तो वहीं गरदन काट दी जायेगी । शुकदेव जी मृत्यु के डर से कटोरे से तेल न फैलने की सावधानी रखते हुए चले । सारा भ्रमण कर लिया पर उन्हें तेल के अतिरिक्त और कुछ न दिखा । जनक ने तब उनसे कहा, कि जिस प्रकार मृत्यु के भय ने तेल की बूँद भी न फैलने दी और सारा ध्यान कटोरे पर ही रखा, उसी प्रकार में भी मृत्यु भय को सदा ध्यान में रखता हूँ, जिससे किसी कर्तव्य कर्म में न तो प्रमाद होता और न मन व्यर्थ की बातों में
भटक कर चंचल होता है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रमशः
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गुरुवार, 17 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर ११

सुनसान के सहचर ११
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आगे और भी प्रचण्ड तप करने का निश्चय किया है और भावीजीवन को तप-साधना में ही लगा देने का निश्चय किया है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है । हम तप का महत्त्व समझ चुके हैं कि संसार के बड़े से बड़े पराक्रम और पुरुषार्थ एवं उपार्जन की तुलना में तप साधना का मूल्य अत्यधिक है। जौहरी काँच को फेंक, रत्न की साज-सम्भाल करता है । हमने भी भौतिक सुखों को लात मार कर यदि तप की सम्पत्ति एकत्रित करने का निश्चय किया है तो उससे मोहग्रस्त परिजन भले ही खिन्न होते हैं वस्तुतः उस निश्चय में दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता ही ओत-प्रोत है।

राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक दोनों मिलकर इन दिनों जो रचना कर रहे है, वह केवल आग लगाने वाली, नाश करने वाली ही है । ऐसे हथियार तो बन रहे हैं, जो विपक्षी देशों को तहस-नहस करके अपनी विजय पताका गर्वपूर्वक फहरा सकें, पर ऐसे अस्त्र कोई नहीं बना पा रहा है, जो लगाई आग को बुझा सके, आग लगाने वालों के हाथ को कुंठित कर सके और जिनके दिलों व दिमागों में नृशंसता की भट्टी जलती है, उनमें शान्ति एवं सौभाग्य की सरसता प्रवाहित कर सके । ऐसे शान्ति शस्त्रों का निर्माण राजधानियों में, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है । प्राचीनकाल में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव हुई है, तब तपोवनों की प्रयोगशाला में तप साधना के महान् प्रयत्नों द्वारा ही शान्ति शस्त्र तैयार किये गये हैं । वर्तमान काल में अनेक महान् आत्माएँ इसी प्रयत्न के लिए अग्रसर हुई है।संसार को, मानव जाति को सुखी और सुन्नत बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं । उद्योग-धन्धे, कल-कारखाने, रेल, तार, सड़क, बाँध, स्कूल, अस्पतालों आदि का बहुत कुछ निर्माण कार्य चल रहा है। इससे गरीबी और बीमारी, अशिक्षा और असभ्यता का बहुत कुछ समाधान होने की आशा की जाती है; पर मानव अन्त:करणों में प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्य का, आस्तिकता और धार्मिकता का, सेवा और संयम का निर्झर प्रवाहित किए बिना, विश्व शान्ति की दिशामें कोई कार्य न हो सकेगा । जब तक सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले गाँधी, दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, नारद, व्यास जैसे आत्मबल सम्पन्न मार्गदर्शक न हों, तब तक लोक मानस को ऊँचा उठाने के प्रयत्न सफल न होगे । लोक मानस को ऊँचा उठाए, बिना पवित्र आदर्शवादी भावनाएँ 1. उत्पन्न किये बिना, लोक की गतिविधियाँ ईर्ष्या-द्वेष, शोषण, अपहरण, आलस्य, प्रमाद, व्यभिचार, पाप से रहित न होंगी, तब तक क्लेश और कलह से, रोग और दारिद्र से कदापि छुटकारा न मिलेगा।

लोक मानस को पवित्र, सात्विक एवं मानवता के अनुरूप, नैतिकता से परिपूर्ण बनाने के लिए जिन सूक्ष्म आध्यात्मिक तरंगों को प्रवाहित किया जाना आवश्यक है, वे उच्च कोटि की आत्माओं द्वारा विशेष तप साधन से ही उत्पन्न होंगी । मानवता की, धर्म और संस्कृति की यह सबसे बड़ी सेवा है। आज इन प्रयत्नों की तुरन्त आवश्यकता 1. अनुभव की जाती है, क्योंकि जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं, असुरता का पलड़ा अधिक भारी होता जाता है, देरी करने में अति और अनिष्ट की अधिक सम्भावना हो सकती है ।

समय की इसी पुकार ने हमें वर्तमान कदम उठाने को बाध्य किया। यों जबसे यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ, ६ घण्टे की नियमित गायत्री उपासना का क्रम चलता रहा है; पर बड़े उद्देश्यों के लिए जिस सघन साधना और प्रचंड तपोबल की आवश्यकता होती है, उसके लिए यह आवश्यक हो गया कि १ वर्ष ऋषियों की तपोभूमि हिमालय में रहा और प्रयोजनीय तप सफल किया जाय । इस तप साधना का कोई वैयक्तिक उद्देश्य नहीं । स्वर्ग और मुक्ति की न कभी कामना रही और न रहेगी। अनेक बार जल लेकर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का संकल्प लिया है, फिर पलायनवादी कल्पनाएँ क्यों करें। विश्व हित ही अपना हित है। इस लक्ष्य को लेकर तप की अधिक उग्र अग्नि में अपने को तपाने का वर्तमान कदम उठाया है।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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बुधवार, 16 सितंबर 2020

सुनसान के सहचर १०

सुनसान के सहचर १०
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इस प्रकार के दस-बीस नहीं हजारों-लाखों प्रसंग भारतीय इतिहास में मौजूद हैं, जिनने तप शक्ति के लाभों से लाभान्वित होकर साधारण नर तनधारी जनों ने विश्व को चमत्कृत कर देने वाले स्व-पर कल्याण के महान् आयोजन पूर्ण करने वाले उदाहरण उपस्थित किए हैं । इस युग में महात्मा गांधी, संत विनोबा, ऋषि दयानन्द, मीरा, कबीर, दादू, तुलसीदास, सूरदास, रैदास, अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो कार्य किए गए हैं, वे साधारण भौतिक पुरुषार्थ द्वारा पूरे किए जाने पर सम्भव न थे । हमने भी अपने जीवन के आरम्भ से ही यह तपश्चर्या का कार्य अपनाया है । २४ महापुरश्चरणों के कठिन तप द्वारा उपलब्ध शक्ति का उपयोग हमने लोक-कल्याण में किया है । फलस्वरूप अगणित व्यक्ति हमारी सहायता से भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति की उच्च शिक्षा तक पहुँचे हैं । अनेकों को भारी व्यथा व्याधियों से, चिन्ता परेशानियों से छुटकारा मिला है । साथ ही धर्म जागृति एवं नैतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशाजनक कार्य हुआ है । २४ लक्ष गायत्री उपासकों का निर्माण एवं २४ हजार कुण्डों के यज्ञों का संकल्प इतना महान् था कि सैकड़ों व्यक्ति मिलकर कई जन्मों में भी पूर्ण नहीं कर सकते थे; किन्तु यह सब कार्य कुछ ही दिनों में बड़े आनन्द पूर्वक पूर्ण हो गए । गायत्री तपोभूमि
का-गायत्री परिवार का निर्माण एवं वेद भाष्य का प्रकाशन ऐसे कार्य हैं, जिनके पीछे साधना-तपश्चर्या का प्रकाश झाँक रहा है ।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर ९

सुनसान के सहचर ९
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देवताओं और ऋषियों की भाँति ही असुर भी यह भली-भाँति जानते थे कि तप में ही शक्ति की वास्तविकता केन्द्रित है । उनने भी प्रचण्ड तप किया और वरदान प्राप्त किए, जो सुर पक्ष के तपस्वी भी प्राप्त न कर सके थे। रावण ने अनेकों बार सिर का सौदा करने वाली तप साधना की और शंकर जी को इंगित करके अजेय शक्तियों का भण्डार प्राप्त किया । कुम्भकरण ने तप द्वारा ही छः-छः महीने सोने-जागने का अद्भुत वरदान पाया था । मेघनाथ, अहिरावण और मारीचि को विभिन्न मायावी शक्तियाँ भी उन्हें तप द्वारा मिली थीं । भस्मासुर ने सिर पर हाथ रखने से किसी को भी जला देने की शक्ति तप करके ही प्राप्त की थी।
हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, सहस्रबाहु, बालि आदि असुरों के पराक्रम का भी मूल आधार तप ही था । विश्वामित्र और राम के लिए सिर दर्द बनी हुई ताड़का, श्रीकृष्ण चन्द्र के प्राण लेने का संकल्प करने वाली पूतना, हनुमान को निगल जाने में समर्थ सुरसा, सीता को नाना प्रकार के कौतूहल दिखाने वाली त्रिजटा आदि अनेकों असुर नारियाँ भी ऐसी थीं, जिनने आध्यात्मिक क्षेत्र में अच्छा खासा परिचय दिया।
- श्रीराम शर्मा आचार्य
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